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हिन्दवी स्वराज्य स्थापना का 350 वां वर्ष श्रृंखला 15 = दादाजी कोंडदेव शहाजीराजे के पास पुणे प्रान्त के 36 गाँवों की जागीर थी, उन्हें आदिलशाह ने बैंगलौर भेज दिया परन्तु पुणे की जागीर उन्हीं के पास थी l

 हिन्दवी स्वराज्य स्थापना का  350 वां वर्ष श्रृंखला 15 = दादाजी कोंडदेव  

                             शहाजीराजे के पास पुणे प्रान्त के 36 गाँवों की जागीर थी, उन्हें आदिलशाह ने बैंगलौर भेज दिया परन्तु पुणे की जागीर उन्हीं के पास थी l    

                                        शहाजीराजे ने साडे तीन साल एक बादशाही अपनी गोद में लेकर सार्वभौम शासन चलाया l उस समय उनके दरबार में अनेक मराठा सरदार, लिपिक, सैनिक थे, ये लोग उनकी संपत्तिस्वरुप थे l जिजाबाई साहेब एवं शिवाजीराजे को पुणे प्रान्त में जब शहाजीराजे ने भेजा, तब उनके साथ छोटे -छोटे कार्य करनेवाले सेवकों से लेकर कारभारी, दिवाण, फडणविस, लिपिक ऐसे लोगों को भी व्यवस्था के लिए भेजा l इन सबके साथ थे दरबारी कार्य करने के लिए कलमबंद दादाजी कोंडदेव मलठणकर l उम्र लगभग 75 वर्ष, समय था सन 1636-37   


                                  भीमा नदी के किनारे, सिद्धटेक गणेश मंदिर के पास का गाँव दादाजी का मूल गाँव था मलठण l गाँव पर बहमनी बादशाह का अमल था l बाद में आदिलशाह ने इसपर अधिकार जमाया l पुणे आने तक दादाजी आदिलशाह के दरबार में सेवा देते थे -लिपिक का कार्य करते थे l अपनी ईमानदारी के कारण दादाजी सीढ़ी -दर-सीढ़ी ऊपरी ओहदे तक पहुँचे l पुणे के पास कोंढ़ाणा परिसर एवं

कोंढाणा दुर्ग है, दादाजी को आदिलशाह ने कोंढाणा दुर्ग का सुबेदार बनाया l इन्हीं दादाजी कोंडदेव को शहाजीराजे ने जिजाबाई व शिवाजी के कारोबार का मुख्य लिपिक नियुक्त किया ।सन 1637 शहाजीराजे ने दादाजी में जो विशेषताएं देखी थी उनके कारण ही उन्हें पुणे भेजा था l दादाजी निष्ठावान ईमानदार, आज्ञाकारी, मेहनती, अनुशासित, हिसाब के पक्के, जनता की ममता से चिंता करनेवाले थे l मन साफ था एवं हाथ तीर्थोदक जैसे निर्मल थे l ऐसा कहा जाता है अनुशासन के इतने पक्के थे कि कारोबार की देखभाल करते समय उनका स्वभाव सुई की नोंक जैसा होता था -चुभनेवाला l पर यही स्वामीनिष्ठा उनका मुख्य गुण था l सेवा में दक्ष अर्थात सावधान, बुद्धिमान, अनुभवी थे l शहाजीराजे को विश्वास था दादाजी जिजाबाई की अपने पुत्री जैसी एवं शिवाजी की अपने पोते जैसी देखभाल करेंगे l         शहाजीराजे ने जब जिजाबाई व शिवाजी को पुणे भेजा तब पुणे की दुरावस्था हो गयी थी, देखकर कोई कह भी नहीं सकता था कि यहाँ कोई गाँव है l पाँच सुल्तानों ने बारी-बारी से आक्रमण कर उसे ध्वस्त किया था

 केवल चार घर बचे थे l गाँव की सरहद तक बारूद से उड़ा दी गयी थी घर जला दिए थे, संपत्ती लूट ली थी, कत्लेआम हुआ था l गधा  को जोतकर हल चलाया था, एक सब्बल गाड़कर रखा था एवं टूटे चप्पल जूतों की माला रास्ते पर लटकायी थी l यह सारा काम आदिलशाह की सेना ने किया था और इसका अर्थ था शहाजीराजे के पुणे को हमने समाप्त कर दिया है l अब यह श्मशान है, यहाँ कोई बसेगा नहीं, यह स्थान आबाद नहीं होगा सन 1630 ।ऐसे ध्वस्त स्थान को फिरसे बसाने का श्रेय जिजाबाईसाहेब के साथ दादाजी को भी जाता है l लगन व श्रम से, अपने बुद्धि के बल पर उन्होंने फिरसे पुणे बसाया था l

पुणे में महल बनवाये गए, मंदिर बनवाये गए, योजना बनाकर फलों के बगीचे तैयार करवाएँ गए, नदियों पर व झरनों पर बाँध बनवाये गए l  इन सबके लिए जमीन तलाशने से लेकर पूर्ण निर्माण तक की जिम्मेदार दादाजी ने उठायी l उसका कारण यह था दादाजी जिजाबाई व शिवाजी से केवल प्रेम नहीं करते थे, उनपर उनकी निष्ठा थी व आदर के साथ भक्ति भी थी l लाल महल, शहबाग, पेठ जिजापुर ये उसके उदाहरण हैं l कार्य ही पूजा व पुणे को पुनः बसाना उनके लिए व्रत के समान था l यह सब करते समय आलस, बेहिसाब व्यय व रिश्वतखोरी को कोई स्थान नहीं था l शहाजीराजे व जिजाबाई का स्वराज्य का स्वप्न अब दादाजी  का भी स्वप्न था l दिया हुआ वचन व समय का वह पालन करते थे l साफ मन से व कर्मठता से 36 गावों का कारोबार चलाते थे lकेवल महल व बगीचे बनाने से गाँव नहीं बसता है, उसे बसाने के लिए मनुष्यों की बस्ती चाहिए l परन्तु सुल्तानों के अत्याचारों से गाँव उजड़ गया था, लोग दूसरे स्थानों पर बसने चले गए थे क्योंकि उनकी सुरक्षा करने वाला कोई नहीं था l  दादाजी ने किसान, पाटिल, चौधरी, बलूतेदारों को एकत्रित कर समझाया, सुरक्षा का जिम्मा 'लाल महल' का व लोग आनंद से वापस आये l  तेली, व्यापारी, लुहार, कुम्हार, पुजारी वापस आये व बस्ती से पुणे बस गया -यह दादाजी ने कर दिखाया क्योंकि उनमें जोश था, उत्साह था, आस थी व स्वप्नपूर्ति की महत्वकांक्षा थीl

किसानों को खेती के लिए जमीन दी जंगली जानवरों को पकड़ने के लिए पुरस्कार घोषित किये, इससे लोगों में वीरश्री का संचार हुआ व स्वसंरक्षण का संस्कार भी दिया गया l  सोने के हल से जमीन जोतने की कल्पना भी दादाजी की ही थी जिससे गधा जोतकर हल चलाने का धब्बा भी धुल गया l लूटमार,डकैती पर नियंत्रण के लिए सेना की टुकड़ी तैनात की गयी l

जमीन की नपति कर उसके अनुसार प्रतवारी प्रथा अर्थात महसूल भरने की प्रथा स्थापित करने का श्रेय भी दादाजी को जाता है l न्याय करने वाला कोई नहीं था, उसकी भी व्यवस्था हुई,अब दादाजी स्वयं 'लाल महल' में बैठकर माँसाहेब की उपस्थिति में फरियाद सुनकर न्याय करते थे l धीरे -धीरे शिवाजीराजे को भी उन्होंने न्याय देने के काम में अपने साथ रखकर एक प्रकार से उनका दृष्टीकोण भी विकसित करने का काम किया l भाग एक निरन्तर

सन्दर्भ --राजा शिवछत्रपति

लेखक :महाराष्ट्र भूषण व पद्म विभूषण बाबासाहेब पुरंदरे

संकलन - स्वयंसेवक एवं टीम

प्रस्तुति अशोक जी पोरवाल

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