पुण्य श्लोक देवी अहिल्याबाई होलकर त्रि शताब्दी वर्ष
श्रृंखला 11 =
अहिल्याबाई के श्वसुर मल्हारराव का आलमपुर मे निधन
अहिल्याबाई पति खंडेराव के देहांत के बाद नन्हे बाल-बालिका की परवरिश तथा राज -पाट के कार्य मे भी व्यस्त रहती थी। अहिल्याबाई को सास गोतमाबाई और श्वसुर से माता-पिता की तरह ही स्नेह मिला था, वे अहिल्याबाई को बहू नहीं अपितु बेटी के रूप मे स्नेह करते थे इसीलिये तो श्वसुर मल्हारराव के अनुरोध पर अहिल्याबाई ने प्रचलित लोक-प्रथा सती सह-गमन के निर्णय को छोड़ दिया। श्वसुर की वृद्धावस्था व निरंतर उनके युद्ध अभियानों मे लगे रहने से और पुत्र खंडेराव के देहांत के कारण राज-पाट का दायित्व अहिल्याबाई पर ही था, खंडेराव के रहते हुवे भी अहिल्याबाई की योग्यता तथा आत्मशक्ति को देख मल्हारराव ने प्रशासनिक और राजनीतिक दायित्व अहिल्याबाई को ही सौंप रखे था।
मल्हारराव लगातार युद्ध अभियानो मे व्यस्त रहते थे, अठारहवीं शताब्दी मे मराठों का भारतवर्ष मे बहुत दब-दबा था तथा मुग़ल भी मराठों से कांपते थे किन्तु सन 1761 मे पानीपत के युद्ध मे अहमदशाह अब्दाली से पराजित होने से देशभर मे मराठों की साख को धक्का लगा था किन्तु इस अवसर का लाभ उठाते हुवे मल्हारराव ने मालवा राज्य मे आव्हान किया कि इन मुग़लों को देश से भगाना हैं तो इनके विरुद्ध विद्रोह के झंडे उठाने होंगे । मालवा राज्य मे मुग़लों के विद्रोह के झंडे उठने लगे थे, मल्हारराव ने अविश्राम परिश्रम तथा राजनीतिक सूझ-बुझ का परिचय देते हुवे थोड़े ही समय मे विपरीत परिस्थितियों पर नियंत्रण कर लिया व मालवा मे पुन: उनकी सत्ता मज़बूत स्थिति मे आ गयी। पैशवा ने इस सफलता के लिये मल्हारराव को बहुत सराहा और उन्हें मालवा के साथ मे संपूर्ण उत्तर भारत के अधिकार सौंपकर सम्मानित किया। जब मल्हारराव युद्धक्षेत्र मे थोड़े समय के लिये भी ख़ाली बैठते तो अपनी पुत्रवधू अहिल्याबाई को पत्र लिखते व उन्हें सलाह भी देते थे एक पत्र मे मल्हारराव ‘अहिल्याबाई’ को लिखते हैं की - “ तुमने लिखा हैं की, ग्वालियर मे तोपखाना रखने से चारे-पानी की अव्यवस्था होगी इसलिये उसे सिरोंज ले जाती हूँ, यह ठीक हैं तो तोपख़ाने को सिरोंज मे ही रखकर बैलों के चारे-पानी की व्यवस्था करवाने के बाद तुम इंदौर चली जाना तथा वहां जाकर सेंधवा परगने की वसूली और ताजपुर के बंदोबस्त की व्यवस्था कर देना। मैं अभी दिल्ली जा रहा हूँ, वहां से बुंदेलखंड पहुँचूँगा, बाद मे जो तय होगा सूचित करूँगा तथा बहुत-बहुत आशीर्वाद॥’’
मल्हारराव का एक पत्र और जिसमे वे अहिल्याबाई को राजनीतिक कूटनीति की सलाह देते हुवे लिखते हैं - “गोहद की तरफ़ गढ़ी के जमाव को ध्यान मे रखकर ही अपने तोपखाने भेजना, एकदम साहस मत करना, अपने प्रभाव से जितना संभव हैं, काम निकलवाना। दूसरो के भरोसे पर तोपखाना दूर मत भेजना, तोपखाने का मान भी बना रहेगा तथा अपना काम भी हो जाये ऐसी युक्ति सूचना॥”
इन पत्रों से स्पष्ट दिखाई देता हैं की मल्हारराव के समय से ही अहिल्याबाई राजकाज तथा युद्धनीति मे निपुण हो गयी थी। मल्हारराव की अनुपस्थिति मे राज्य की प्रबंध - व्यवस्था लोकमाता अहिल्याबाई ही देखती थी। मल्हारराव अपने पुत्र खंडेराव के निधन के कारण बहुत दुःखी रहते थे, उनका मन जीवन के अंतिम पड़ाव मे सुख शांति और विश्राम की इच्छा कर रहा था मगर राजनीतिक परिस्थितियों ने उन्हें विश्राम करने ही नहीं दिया। पानीपत के युद्ध के बाद हुई हानि की भरपाई से मराठों ने पुन: उत्तर भारत पर आक्रमण किया तब मराठा सेनाओं का नेतृत्व राघोबा पैशवा कर रहे थे, उनके साथ महादजी सिंधिया, मल्हारराव होलकर, तुकोजीराव तथा अहिल्याबाई के सुपुत्र मालेराव भी थे। मराठों ने गोहद (वर्तमान म.प्र. के भिंड ज़िले मे स्थित एक शहर हैं) को पराजित करने के लिये बहुत मशक़्क़त की, गोहद के राजा पराजित तो हो गये मगर अचानक ही मल्हारराव की तबीयत बिगड़ गयी तब मराठों ने आलमपुर (आलमपुर वर्तमान भिंड ज़िले मे स्थित हैं) मे डेरा जमाया और मल्हारराव के उपचार का प्रबंध किया मगर उनका अंतिम समय पास आ गया था । महादजी सिंधिया, तुकोजीराव व मालेराव उनके समीप ही बैठे थे तब मल्हारराव ने अपने पोते मालेराव को अपने पास बुलाकर कहां - “ मेरे बाद मेरी जगह तुम श्रीमंत पैशवा की सेवा करना” तथा उन्होंने तुकोजीराव के हाथ मे मालेराव का हाथ रखा और मालेराव के संरक्षण की ज़िम्मेदारी उन्हें सौंप दी और तुरंत ही मल्हारराव ने आलमपुर मे 30 मई 1766 को 73 वर्ष की आयु मे अंतिम सांस ली ।
मल्हारराव के निधन का समाचार सुनकर अहिल्याबाई अपना आपा खो बैठी व दुःखी मन से उन्होंने होलकर वंश के संस्थापक मल्हारराव होलकर की अंत्येष्टि करवायी। मल्हारराव राव के स्मृति मे अहिल्याबाई ने एक एक छतरी का निर्माण करवाया तथा उस छतरी के रख-रखाव के लिये भी उन्होंने स्थायी व्यवस्थाए कर दी।
एक सामान्य परिवार मे जन्मि अहिल्याबाई अपनी योग्यता से होलकर की राजवधू तो बन गई मगर राजसी सूखो का उपभोग उन्होंने नहीं किया, राजसी सुख तो दूर, चिंतारहित मन - शांति भी उन्हें नहीं मिली। अपने वैवाहिक जीवन के शुरुआत मे उनके द्विग्भ्रमित पति खंडेराव को वह संस्कारित करके मार्ग पर लाने मे सफल हुई ही थी की कुंभेर के युद्ध मे पति खंडेराव वीरगति को प्राप्त हो गये, फिर पिता की तरह स्नेह देने वाले बूढ़े श्वसुर की सेवा तथा मालवा राज्य की प्रशासनिक दायित्वों का निर्वहन करने के उद्देश्य से श्वसुर के निवेदन पर उन्होंने पति के साथ सती सह-गमन के निश्चय को भी त्याग दिया मगर कुछ ही वर्षों मे बूढ़े श्वसुर का साया भी उनके सिर से उठ गया।
संदर्भ - लोकमाता अहिल्याबाई
लेखक - अरविंद जावलेकर
संकलन - स्वयंसेवक एवं टीम
प्रस्तुति अशोक जी पोरवाल
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