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हिन्दवी स्वराज्य स्थापना का 350 वां वर्ष श्रृंखला 15 = दादाजी कोंडदेव शहाजीराजे के पास पुणे प्रान्त के 36 गाँवों की जागीर थी, उन्हें आदिलशाह ने बैंगलौर भेज दिया परन्तु पुणे की जागीर उन्हीं के पास थी l

 हिन्दवी स्वराज्य स्थापना का  350 वां वर्ष श्रृंखला 15 = दादाजी कोंडदेव    शहाजीराजे के पास पुणे प्रान्त के 36 गाँवों की जागीर थी, उन्हें आदिलशाह ने बैंगलौर भेज दिया परन्तु पुणे की जागीर उन्हीं के पास थी l     


                                      शहाजीराजे ने साडे तीन साल एक बादशाही अपनी गोद में लेकर सार्वभौम शासन चलाया l उस समय उनके दरबार में अनेक मराठा सरदार, लिपिक, सैनिक थे, ये लोग उनकी संपत्तिस्वरुप थे l जिजाबाई साहेब एवं शिवाजीराजे को पुणे प्रान्त में जब शहाजीराजे ने भेजा, तब उनके साथ छोटे -छोटे कार्य करनेवाले सेवकों से लेकर कारभारी, दिवाण, फडणविस, लिपिक ऐसे लोगों को भी व्यवस्था के लिए भेजा l इन सबके साथ थे दरबारी कार्य करने के लिए कलमबंद दादाजी कोंडदेव मलठणकर l उम्र लगभग 75 वर्ष, समय था सन 1636-37                                     भीमा नदी के किनारे, सिद्धटेक गणेश मंदिर के पास का गाँव दादाजी का मूल गाँव था मलठण l गाँव पर बहमनी बादशाह का अमल था l बाद में आदिलशाह ने इसपर अधिकार जमाया l पुणे आने तक दादाजी आदिलशाह के दरबार में सेवा देते थे -लिपिक का कार्य करते थे l अपनी ईमानदारी के कारण दादाजी सीढ़ी -दर-सीढ़ी ऊपरी ओहदे तक पहुँचे l पुणे के पास कोंढ़ाणा परिसर एवं

कोंढाणा दुर्ग है, दादाजी को आदिलशाह ने कोंढाणा दुर्ग का सुबेदार बनाया l इन्हीं दादाजी कोंडदेव को शहाजीराजे ने जिजाबाई व शिवाजी के कारोबार का मुख्य लिपिक नियुक्त किया ।सन 1637 शहाजीराजे ने दादाजी में जो विशेषताएं देखी थी उनके कारण ही उन्हें पुणे भेजा था l दादाजी निष्ठावान ईमानदार, आज्ञाकारी, मेहनती, अनुशासित, हिसाब के पक्के, जनता की ममता से चिंता करनेवाले थे l मन साफ था एवं हाथ तीर्थोदक जैसे निर्मल थे l ऐसा कहा जाता है अनुशासन के इतने पक्के थे कि कारोबार की देखभाल करते समय उनका स्वभाव सुई की नोंक जैसा होता था -चुभनेवाला l पर यही स्वामीनिष्ठा उनका मुख्य गुण था l सेवा में दक्ष अर्थात सावधान, बुद्धिमान, अनुभवी थे l शहाजीराजे को विश्वास था दादाजी जिजाबाई की अपने पुत्री जैसी एवं शिवाजी की अपने पोते जैसी देखभाल करेंगे l         शहाजीराजे ने जब जिजाबाई व शिवाजी को पुणे भेजा तब पुणे की दुरावस्था हो गयी थी, देखकर कोई कह भी नहीं सकता था कि यहाँ कोई गाँव है l पाँच सुल्तानों ने बारी-बारी से आक्रमण कर उसे ध्वस्त किया था

 केवल चार घर बचे थे l गाँव की सरहद तक बारूद से उड़ा दी गयी थी घर जला दिए थे, संपत्ती लूट ली थी, कत्लेआम हुआ था l गधा  को जोतकर हल चलाया था, एक सब्बल गाड़कर रखा था एवं टूटे चप्पल जूतों की माला रास्ते पर लटकायी थी l यह सारा काम आदिलशाह की सेना ने किया था और इसका अर्थ था शहाजीराजे के पुणे को हमने समाप्त कर दिया है l अब यह श्मशान है, यहाँ कोई बसेगा नहीं, यह स्थान आबाद नहीं होगा सन 1630 ।ऐसे ध्वस्त स्थान को फिरसे बसाने का श्रेय जिजाबाईसाहेब के साथ दादाजी को भी जाता है l लगन व श्रम से, अपने बुद्धि के बल पर उन्होंने फिरसे पुणे बसाया था l

पुणे में महल बनवाये गए, मंदिर बनवाये गए, योजना बनाकर फलों के बगीचे तैयार करवाएँ गए, नदियों पर व झरनों पर बाँध बनवाये गए l  इन सबके लिए जमीन तलाशने से लेकर पूर्ण निर्माण तक की जिम्मेदार दादाजी ने उठायी l उसका कारण यह था दादाजी जिजाबाई व शिवाजी से केवल प्रेम नहीं करते थे, उनपर उनकी निष्ठा थी व आदर के साथ भक्ति भी थी l लाल महल, शहबाग, पेठ जिजापुर ये उसके उदाहरण हैं l कार्य ही पूजा व पुणे को पुनः बसाना उनके लिए व्रत के समान था l यह सब करते समय आलस, बेहिसाब व्यय व रिश्वतखोरी को कोई स्थान नहीं था l शहाजीराजे व जिजाबाई का स्वराज्य का स्वप्न अब दादाजी  का भी स्वप्न था l दिया हुआ वचन व समय का वह पालन करते थे l साफ मन से व कर्मठता से 36 गावों का कारोबार चलाते थे lकेवल महल व बगीचे बनाने से गाँव नहीं बसता है, उसे बसाने के लिए मनुष्यों की बस्ती चाहिए l परन्तु सुल्तानों के अत्याचारों से गाँव उजड़ गया था, लोग दूसरे स्थानों पर बसने चले गए थे क्योंकि उनकी सुरक्षा करने वाला कोई नहीं था l  दादाजी ने किसान, पाटिल, चौधरी, बलूतेदारों को एकत्रित कर समझाया, सुरक्षा का जिम्मा 'लाल महल' का व लोग आनंद से वापस आये l  तेली, व्यापारी, लुहार, कुम्हार, पुजारी वापस आये व बस्ती से पुणे बस गया -यह दादाजी ने कर दिखाया क्योंकि उनमें जोश था, उत्साह था, आस थी व स्वप्नपूर्ति की महत्वकांक्षा थीl

किसानों को खेती के लिए जमीन दी जंगली जानवरों को पकड़ने के लिए पुरस्कार घोषित किये, इससे लोगों में वीरश्री का संचार हुआ व स्वसंरक्षण का संस्कार भी दिया गया l  सोने के हल से जमीन जोतने की कल्पना भी दादाजी की ही थी जिससे गधा जोतकर हल चलाने का धब्बा भी धुल गया l लूटमार,डकैती पर नियंत्रण के लिए सेना की टुकड़ी तैनात की गयी l

जमीन की नपति कर उसके अनुसार प्रतवारी प्रथा अर्थात महसूल भरने की प्रथा स्थापित करने का श्रेय भी दादाजी को जाता है l न्याय करने वाला कोई नहीं था, उसकी भी व्यवस्था हुई,अब दादाजी स्वयं 'लाल महल' में बैठकर माँसाहेब की उपस्थिति में फरियाद सुनकर न्याय करते थे l धीरे -धीरे शिवाजीराजे को भी उन्होंने न्याय देने के काम में अपने साथ रखकर एक प्रकार से उनका दृष्टीकोण भी विकसित करने का काम किया l भाग एक निरन्तर

सन्दर्भ --राजा शिवछत्रपति

लेखक :महाराष्ट्र भूषण व पद्म विभूषण बाबासाहेब पुरंदरे

संकलन - स्वयंसेवक एवं टीम 

 स्वराज्य स्थापना का 350 वा वर्ष श्रृंखला 16 =  दादाजी कोंडदेव  भाग दो

दादाजी की एक खासियत थी, जब भी वह न्याय करते, उस गाँव के जिम्मेदार व्यक्तियों के साथ बैठकर, चारों ओर से पूछताछ कर उन सभी के विचारों से न्याय करते थे इससे जिम्मेदार नागरिक भी उस न्यायदान में सम्मिलित होने की भावना से अधिक जिम्मेदार बनते गए l न्याय करते समय अगर दंड वसूलना हो व अपराधी के पास धन न होने की स्थिति में शासन से तारण ऋण देने की व्यवस्था भी दादाजी करते थे l निरक्षिर विवेक अर्थात दूध का दूध व पानी का पानी इस प्रकार से न्याय करना उनकी विशेषता थी lन्यायदान करते समय शिवाजी के साथ रहने से शिवाजी अन्याय का अर्थ समझने लगे व यही से अन्याय के विरोध में खड़े रहने का बल उन्हें मिला जो स्वराज्य स्थापना के स्वप्न को भी बल देता रहा क्योंकि स्वराज्य यह जनता का राज्य था, न्याय के नींव पर खड़ा भवन था l

जनता की समृद्धि के साथ शासन का खजाना भी समृद्ध होता गया व जिसका उपयोग विकास कार्यों के लिए होकर यह छोटीसी जागीर 'स्वराज्य' का स्वरुप लेने लगी, इन सबके पीछे दादोजी की बुद्धि एवं लगन ही थी l

दादाजी ने माँसाहेब के व्यक्तिगत खर्च के लिए भी उत्तम व्यवस्था की, दो गाँवों का महसूल माँसाहेब के लिए आरक्षित किया गया, इससे दादाजी हिसाब के कितने पक्के थे यह समझ में आता है l इस आय -व्यय की व्यवस्था के लिए एक अलग से लिपिक भी दादाजी ने नियुक्त किया -इससे उनकी दूरदर्शिता व स्वच्छ व्यवहार का दर्शन होता है l शिवाजीराजे की उम्र दस वर्ष की थी, उनका विवाह फलटण के निम्बाळकर नाईक की पुत्री सईबाई के साथ हुआ l इसके बाद शहाजीराजे ने जिजाबाई व शिवाजीराजे को थोड़े दिनों के लिए बैंगलौर बुलाया l तब उनके साथ दादाजी भी गए थे व जाते समय पुणे जागीर का पूर्ण हिसाब (आय -व्यय )का लेखाजोखा व बचा हुआ धन शहाजीराजे के समक्ष रखने के लिए साथ में ले गए थे, इससे उनकी दक्षता, निष्ठा व ईमानदारी हमें ध्यान में आती है l

उस समय महाराष्ट्र में वतनदारी पद्धति अमल में थी, कुछ क्षेत्र किसी एक देशमुख का वतन एवं वह वहाँ का राजा ऐसा दृश्य था l इन वतनों के वतनदार कहलवाना, मान -सम्मान पाने की भूख व इसके कारण आपस में प्रतिस्पर्धा ऐसा दृश्य था l फिर आपस में झगड़े होते रहते व गरीब जनता का हाल पूछने कोई नहीं आता था l दादाजी ने धीरे -धीरे इन सभी देशमुखों को शिवाजीराजे के नेतृत्व (छत्र ) के नीचे एक करवाने का कार्य कर महाराष्ट्र प्रान्त के पुणे प्रभाग को शक्तिशाली बनाने का कार्य किया क्योंकि एकता में बल होता है व सुल्तानों के विरुद्ध, अन्याय व अत्याचार के विरुद्ध युद्ध करने के लिए एकता होना यह अनिवार्य शर्त थी -कार्य असंभव नहीं परन्तु कठिन था, दादाजी ने यह भी किया l यह करते समय साम -दाम -दंड -भेद का भी प्रयोग किया l न्याय, अनुशासन, प्रतिष्ठा स्थापित करने के लिए गुंडागर्दी को दहशत से भी कई बार सही मार्ग पर लाने का प्रयास भी दादाजी ने किया एवं स्वराज्य की प्रतिष्ठा स्थापित करने के लिए यह आवश्यक था l

ऐसे समय न्याय हेतु न सुननेवालों को कठोर दंड देने के उदाहरण भी इतिहास के पन्नों में मिलते है -एक नाम कृष्णाजी नाईक बान्दल -उसके हाथ व पैर दादाजी ने कटवा दिए थे l यह हिम्मत आगे चलकर हमें शिवाजीराजे में भी देखने को मिलती है lदादाजी ने वह दृष्टी भी शिवाजीराजे को दी जिससे शिवाजीराजे मनुष्य के गुण -अवगुणों की पहचान करना भी सीख गए तथा भविष्य में इसी मार्ग पर चलते हुए उन्होंने हजारों लोग अपने पवित्र कार्य में जोड़ लिए थे l दादाजी ने बहुत कल्पकता से, योजनाबद्ध तरीके से पुणे बसाकर स्वराज्य हेतु जमीन तैयार की, शिवाजीराजे के व्यक्तित्व निर्माण में योगदान दिया व ममत्व से चार बातों की सीख भी दी l शिवाजीराजे को विश्वास दिलाया -तुम्हारे हाथ से ही 'स्वराज्य' की स्थापना होगी, धर्म -स्थापना होगी,यह स्वयं ईश्वर की इच्छा है l यह करते समय दूरदृष्टी से विचार करते हुए योजनाएं बनाकर कार्य करना, शत्रु को एवं उसकी चाल को पहचानकर शासन करना, पूर्वजों की यह जागीर -दौलत इसकी रक्षा करना अन्यथा दौलत शिवाजी ने गँवायी ऐसा आरोप लगेगा, जागीर को सार्वभौम राज्य का स्वरुप देने का कठिन व्रत तुमने हाथ में लिया है परन्तु जब यह सबके सामने आएगा तब परिस्थिति अधिक कठिन हो जाएगी क्योंकि सुलतान इसका विरोध करेंगे l एक समय एक ही शत्रु का सामना करना अर्थात चारों ओर संघर्ष न हो इसका ध्यान रखना l अपने जान की परवाह किये बिना स्वराज्य को सर्वोपरि माननेवाले दोस्तों को साथ में रखना, अपने -पराए की पहचान करना, लोगों के गुण -दोषों को पहचानना, कारोबार की देखभाल करनेवाले लोग बुद्धिमान व सद्विवेक से काम करनेवाले होने चाहिए इस बात को ध्यान में रखना l आपस में सलाह मशवरा करते हुए निर्णय लेना परन्तु नियंत्रण भी रखना आवश्यक है यह बात ध्यान में रखना l राजनीति में केवल प्रेम वात्सल्य-ममत्व से काम नहीं होते हैं, यह सब करते हुए निडरता से कार्य करना l ऐसी सीख देकर,'देवी भवानी तुम्हें शक्ति व सफलता देगी' ऐसा आशीर्वाद देकर दादाजी ने अपनी इहलोक की यात्रा समाप्त की l इतिहास में इसकी तारीख की जानकारी नहीं है परन्तु महिना मार्च व सन 1647

संदर्भ -राजा शिवछत्रपति

लेखक -महाराष्ट्र भूषण व पद्म विभूषण बाबासाहेब पुरंदरे

संकलन - स्वयंसेवक एवं टीम

 हिन्दवी स्वराज्य स्थापना का 350 वां वर्ष श्रृंखला 17 = *न्याय प्रिय दादा कोंडदेव*

सन 1939 ईस्वी में शहाजी ने शिवाजी एवं जीजाबाई को बेंगलुरु से पुणे भेज दिया। साथ में दादा कोंडदेव एवं कुछ विश्वासपात्र कर्तव्यवान सैनिक भी भेज दिए ।दादा कोंडदेव को सर्वाधिकार दिए गए थे । शिवाजी की शिक्षा और पूना जागीर की व्यवस्था करना यह दो काम विशेष रूप से सौंपे गए । दादा कोंडदेव कर्तव्य, अनुशासन प्रिय एवं न्याय निपुण थे । 

एक बार उनका एक नौकर शाहबाग से कुछ फल ले आया एक फल काटा गया । कोंडदेव खाने ही वाले थे कि इतने में उन्हें शंका हुई उन्होंने नौकर से पूछा यह फल कहां से लाए हो नौकर ने उत्तर दिया शाहबाग से दादाजी कोंडदेव ने कहा तब तो मेरे हाथ से बहुत बड़ी गलती हुई दूसरे की वस्तु की चोरी हुई । नौकर ने कहा यह आप क्या कह रहे हैं आप तो मालिक है, इस जागीर के सर्वेसर्वा है। मैं स्वामी नहीं हूं मैं केवल जागीर के संरक्षण एवं संवर्धन के हेतु नियुक्त हूं ।सेवक हूं मुझे उपयोग का अधिकार नहीं है । तब किसी ने कहा सब तो ऐसा ही करते हैं और फिर थोड़े से फल कोई इतनी बड़ी चीज नहीं है। दादाजी कोंडदेव ने कहा मैं सब जैसा नहीं हूं और ना मुझे सब जैसा बनना है दूसरे की वस्तु स्वयं के उपयोग हेतु उठाना चोरी है। वस्तु के छोटे या बड़े होने से कोई अंतर नहीं आता मैंने यह चोरी की है और चोरी के लिए जो कठोर से कठोर दंड दिया जाता है वह मुझे स्वयं को देना होगा । तब किसी ने कहा यह तो नौकर की गलती है इसमें आपका क्या दोष । दादाजी कोंडदेव ने कहा परंतु वह मेरा नौकर है न्याय शास्त्र के अनुसार नौकर की गलती के लिए स्वामी ही उत्तरदायी माना जाता है लाओ, खड़ग लाओ और स्वामी के उद्यान का फल खाने के लिए उद्धत हुआ यह मेरा दाहिना हाथ काट डालो । यह वाक्य सुनते ही सब लोगों के शरीर पर रोंगटे खड़े हो गए । सबके हृदय भय से कांप उठे आस-पास बड़े-बड़े लोग समझाने लगे । फल लाने वाला नौकर तो फूट-फूट कर रोने लगा। वह दौड़ा-दौड़ा जीजाबाई के पास गया उनके पैर पढ़कर गिड़गिड़ा कर पूरी कहानी सुनाई । तब जीजाबाई शिवाजी को लेकर दादा कोंडदेव जी के  घर गई और उन्होंने दादा कोंडदेव को आत्म दंडात्मक कार्य से उन्मुख किया । कहते हैं कि उस दिन से दादाजी कोंडदेव ने अपने कुरते की एक बाँह अधकटी रखते थे इस प्रकार प्रतीकात्मक रूप से उन्होंने अपने आप को दंडित कर लिया और यह सजा वे आजन्म भोंगते रहे। उस अधकाटी बाँह को देखकर सब नौकर चाकर थर्रा जाते थे। एक दूसरे को कहते थे देखो यहां कोई गड़बड़ नहीं चलेगी थोड़ी सी घूसखोरी भ्रष्टाचार या टालमटोल किया तो यहां क्षमा नहीं होगी। दादा कोंडदेव जैसे लोग जितने प्रमाण में जिस राज्य में होंगे उतने प्रमाण में वहां सुराज के दर्शन होंगे ।

संदर्भ - छत्रपति शिवाजी भाग एक प्र.ग. सहस्त्रबुद्धे  ।

संकलन - स्वयंसेवक एवं टीम

 हिन्दवी स्वराज्य स्थापना का 350 वां वर्ष श्रृंखला 18= हिन्दवी स्वराज्य की भावभूमि तैयार करने में संतों का योगदान भाग एक संत ज्ञानेश्वर (1275-1296) संत नामदेव (1270-1350) संत एकनाथ (1533-1599) संत तुकाराम (1608-1649)समर्थ रामदास स्वामी (1608-1681)

       शातवाहनों से लेकर देवगिरी के सम्राट महादेवराय यादव तक महाराष्ट्र के वैभव में वृद्धि होती गयी ।प्रतिपच्चन्द्रलेखेव वृद्धि, अर्थात प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक जैसे चंद्र की कलाओं का विस्तार होता है वैसी वृद्धि (इसा पूर्व 200 से सन 1271)

प्रतापि शासनकर्ते, पराक्रमी सेनापति

महात्मा पुरुष, खगोलशास्त्रज्ञ, महान वैद्य, तत्त्वज्ञ, संगीतरत्नाकर, प्रतिभावान कवि, अन्य कलाओं के साधक थे व इस समृद्ध भवन पर शिखर स्थापित किया संतों ने lशासनकर्ते धर्मसहिष्णु थे l शक्ति की कृपा थी l मुस्लिम, पारसी, अरब सबके साथ व्यापारिक संबंध थे l ईश्वर प्रार्थना के लिए स्वतंत्रता थी lराजप्रासाद, महल, धर्मशालाएं, मंदिर, कुएँ, तालाब, नदियों पर घाट,संपन्नबाजार,अन्नक्षेत्र से समृद्ध क्षेत्र था l घरों पर तालें नहीं लगते थे l

संत परंपरा में चोखा मेळा, गोरा कुम्हार, सावता माळी, नरहरी सुनार, बंका महार, जोगा तेली, सेना नाई, नामदेव शिम्पी, ज्ञानेश्वर, निवृत्ति, सोपान, मुक्तबाई ऐसी महान दिंडीथी l जितना प्रेम उनका ईश्वर के प्रति था उतना ही एक-दूसरे से वे प्रेम करते थे व सभी प्राणियों पर भी प्रेम करते थे l उँच-नीच, जातिभेद, छुआ-छूत का भाव कही नहीं था l समता, प्रेम व एकात्म तत्वज्ञान ही इस प्रेमभाव की नींव थी l अहंकार नहीं था, अन्धश्रद्धा एवं समाज में व्याप्त भेदा-भेद व कुरीतियों के उच्चाटन के लिए सब कार्य करते थे l प्रेम व भक्तिमार्ग का परिचय इन्हीं संतों ने गरीब जनता को करवाया lसंत ज्ञानेश्वर ने साक्षात श्रीकृष्ण का उपदेश-गीता जो संस्कृत में है, सामान्य जनों के समझ से बाहर थी, उसे प्राकृत भाषा में लिखकर सामान्य जनों के हाथ में दी l श्रीकृष्ण के उपदेश का प्रसार किया , कोई किसी भी यौनी में जन्मा हो, निरक्षर हो, शूद्र हो, वैश्य हो, अंत्यज हो जो मेरे पास आएगा वह मेरा होगा l कर्मकांड को महत्व देनेवाले उस युग में, अन्याय-अत्याचारों के नीचे दबे जनता का यह उपदेश सहारा बना l लोग सनातन धर्म की ओर, भक्तिमार्ग से बढ़ते चले गए l एकाकार हुए, संगठित हुए व भविष्य में यही संगठन उनकी शक्ति बनकर उभरकर आया l भक्ति से ईश्वर के प्रति आस्था व विश्वास बढ़ा इस कारण भविष्य में वे पराक्रम करके 'स्वराज्य' स्थापना की नींव के पत्थर बनें lऐसे ही संत नामदेव ने सम्पूर्ण जीवन का तत्वज्ञान लोगों के सामने सरल भाषा में रखा l लोगों को ज्ञानी बनाने का प्रयास किया lसंत सरल भाषा में अभंगों की रचना करते, उसे गाते, उसका अर्थ समझाते, प्रवचन व कीर्तन करके लोगों के मन में ज्ञानदीप जलाते l

संतों की आपस में कोई प्रतिस्पर्धा नहीं थी, ईर्ष्या नहीं थी, अहंकार नहीं था,लांगुलचालन(चापलूसी) नहीं था, ढोंग व स्वार्थ नहीं था क्योंकि वे केवल भक्त थे, उन्हें प्रशंसा, कीर्ति, गुटबाजी, मठ, राजनीति इसमें रस नहीं था l इससे उन्होंने जनता को भी संस्कार देने का प्रयास किया जो आगे चलकर प्रखर राष्ट्रप्रेम में परिवर्तित हुआ व स्वराज्य स्थापना में यह भावना अधिक महत्वपूर्ण थी lसंतों का चरित्र भी उज्ज्वल था l लोककल्याण की चिंता वे करते थे l समाज में घृणा पानेवाले, अवगुणी, व्यसनाधीन, दुष्ट व अहंकारी लोगों को भी वे अपने साथ लेते थे l सम्पूर्ण समाज को चारित्रवान, सदाचारी, सद्विचारी बनाने का प्रयास करते थे l इससे समाज भी सुदृढ व गुणवत्तापूर्ण बनने में सहयोग मिला व आगे चलकर यह राष्ट्र के काम आयाl मन की बीमारी को ठीक करने का प्रयास भक्तिमार्ग से सभी संतों ने किया l सबके कल्याण हेतु ही वे प्रार्थना करते थे यह बात उनकी रचनाओं से हमें ज्ञात होती है l ज्ञानेश्वर पसायदान में कहते है -'जो जे वांछिल तो ते लाहो प्राणीजात'

अर्थात प्राणिमात्र की इच्छाएं पूर्ण हो ।

समाज में स्थिति विकट थी, कर्मकांड, उँच-नीच की भावना से समाज ग्रसित था l सुदूर उत्तर भारत में बजने वाले संकट के ढ़ोल महाराष्ट्र में सुनाई नहीं दिए व संकट ने अर्थातसुल्तान के आक्रमण ने महाराष्ट्र को घेर लिया, यह 1307 के आसपास का समय था l

संदर्भ --राजा शिवछत्रपति

लेखक --महाराष्ट्र भूषण व पद्म विभूषण बाबासाहेब पुरंदरे

संकलन- स्वयंसेवक एवं टीम

 हिन्दवी स्वराज्य स्थापना का 350 वां वर्ष श्रृंखला 19= हिन्दवी स्वराज्य की भावभूमि तैयार करने में संतों का योगदान भाग दो

सुल्तान आपस में साम्राज्य विस्तार हेतु लड़ रहे थे l अनाज, जमीन, परिवार इस पर जनता का हक नहीं था, सुल्तान सब छीन रहे थे l ऐसे कठिण समय में पैठण में संत एकनाथ का जन्म हुआ l विठ्ठल भक्ति के साथ वह अपने प्रवचनों में सुल्तानों के अत्याचार का चित्रण जनता के सामने रखकर लोगों को जागृत करने का प्रयत्न कर रहे थे l"गो -ब्राह्मणों को दुःख देते है एवं क्षेत्र -

धन -महिलाओं का हरण कर, स्वार्थ के लिए जान भी लेते है l" इसके साथ "स्वार्थ से भरे स्वदेशी लोग तुर्को की झूठन भी खाते हैं"ऐसा बताकर लोगों को अपने कर्तव्यों की याद दिलाते थे

महायोगी ज्ञानेश्वर की समाधी की भी दैन्यावस्था हो गयी थी l एकनाथ महाराज ने उसे फिर से स्थापित कर ज्ञानेश्वरी को भी पुनः स्थापित कियाl

निराश लोगों के मन को सहलाया lदुःखियों को फिरसे आवाज लगायी, लोग फिरसे इकठ्ठा हुए एवं धार्मिक आस्थाओं का प्रचार होने लगा l ऐसे समय संत एकनाथ ने अपनी रचनाओं द्वारा सामाजिक कुरीतियों पर आघात किया एवं जनजागृति का प्रयास किया l आपस के कलह मिटाने का प्रयत्न कर लोगों को मानवता का पाठ पढ़ाया lसुलतानी अत्याचार देखकर एकनाथ महाराज ने ईश्वर को पुकारा, आर्त स्वर से पूछा,"हे माते, तुने राम बनकर रावण का वध किया, नृसिंह बनकर हिरण्यकश्यपु का वध किया, अर्जुन के रथ का सारथी बनकर गीता

 उपदेश दिया, प्रत्येक संकट के समय लोगों का रक्षण किया l अब ये यवन तीर्थक्षेत्र भ्रष्ट कर रहे हैं, सारी जनता षडरिपुओं से घिर गयी है फिर तू मौन क्यों है? कृपा करना, रक्षण करना l"

आदिशक्ति माता की कृपा से महाराष्ट्र में भोसले-जाधव सरदारों के मनों में तीर्थक्षेत्रों के रक्षण का विचार पैदा हुआ, अत्याचारी सुल्तानों का प्रतिकार करने का बल निर्माण हुआ l

ऐसे ही समय में इंद्रायणी नदी के किनारे पर देहू गाँव में तुकाराम महाराज ईश्वर से अपने प्रवचनों द्वारा पूछ रहे थे," तख़्त पर बैठा हुआ क्रूर जनता को दुःख दे रहा है और तुम क्या सो रहे हो? " जैसे उन्होंने ईश्वर को आवाज लगायी वैसे ही जनता को भी सावधान किया l शुद्ध आचार, प्रेम व शुद्ध अध्यात्म से समाज के बनावटी गुरु, कुरीतियों के विरुद्ध भी आवाज उठायी l पीर-फकीर, भेड़-बकरियों की बलि देना, गांजा-चरस एवं नशे में डूबे रहना इस कुचक्र से जनता को शुद्ध भक्ति की राह दिखायी l संस्कृत भाषा में बंद ज्ञान को जनता को सरल भाषा में बताना प्रारम्भ किया l भक्ति मार्ग से जनता की आँख खुल गयी एवं इसने जनता को शक्ति दी न्याय-अन्याय, अपना-पराया पहचानने की l वाद-विवाद के स्थान पर तुकाराम महाराज ने लोगों के मन जीत लिए l इससे जनता में उत्साह, स्वधर्म प्रेम, आशा, धैर्य, आत्मविश्वास, ऎक्यभावना का संचार हुआ लिए

इन संतों ने सुलतानी संस्कृति के विरोध में कोई राजनीति नहीं की, कट-कारस्थान नहीं किए l क्रोध, द्वेष, संघर्ष के बिना केवल धर्म-

स्थापना, धर्मजागृति का मार्ग अपनाया l इससे जनता की शिव-

शक्ति जागृत हुई l ब्राह्मतेज व क्षात्र-

तेज को सही दिशा प्राप्त हुई l

संतों ने मराठी भाषा की रक्षा की अन्यथा फ़ारसी-अरबी भाषा की भीड़ में मातृभाषा खो जाती l कहते है ना, कलम की धार तलवार की धार से अधिक मज़बूत होती है l अनेकानेक लोगों को एकसाथ खड़ा करने का सामर्थ्य शब्दों में होता है l यह सब स्वराज्य स्थापना की भावभूमि तैयार करने में सहयोगी सिद्ध हुआ l

सन्दर्भ --राजा शिवछत्रपति

लेखक --महाराष्ट्र भूषण व पद्म विभूषण बाबासाहेब पुरंदरे

संकलन - स्वयंसेवक एवं टीम

प्रस्तुति अशोक जी पोरवाल

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