हिन्दवी स्वराज्य स्थापना का 350 वा वर्ष श्रृंखला 20 = हिन्दवी स्वराज्य की भावभूमि तैयार करने में संतों का योगदान भाग तीन
समर्थ रामदास नाम के अनुसार ही प्रभु श्रीरामचंद्र के सेवक थेl रामसेवा,रुद्रासेवा व शक्तिसेवा करना आवश्यक है, इसके बिना जनता की आत्मिक उन्नति सम्भव नहीं है यह बात समर्थ जानते थे l रामोपासना से उन्होंने लोगों के मन में उत्साह निर्माण करने का प्रयास कियाl इसके साथ बलोपासना भी आवश्यक थी अतः अलग-अलग स्थानों पर समर्थ हनुमान मंदिरों की स्थापना करते रहेl समर्थ स्वयं व उनके शिष्य भिक्षा के लिए घूमते थे एवं वहाँ की स्थिति का अध्ययन भी करते थेl रामोपासना एवं हनुमान उपासना से मठ-मंदिरों का एक जाल सा तैयार हुआl रामजन्म उत्सव, हनुमान जन्मउत्सव के आयोजन से जगउद्धार का लक्ष्य उनके सामने थाl इससे धर्म - संस्थापना भी संभव हुईl यह आवश्यक भी था क्योंकि सुल्तानशाही के कारण धर्म व संस्कृति की हानि हुई थीl जनता में उदासीनता व निराशा व्याप्त थीl यह दूर करने के लिए अध्यात्म चिंतन का मार्ग था तथा यही कार्य समर्थ ने कियाl यह करते समय समर्थ केवल अध्यात्म का सहारा नहीं लेते थे परन्तु व्यावहारिक अध्यात्म से जनजागृति की राह समर्थ ने अपनायीl इससे आत्मिक उन्नति से, उत्साह से स्वराज्य निर्मिति की भावभूमि तैयार हुई क्योंकि लोगों में उत्साह का संचार हुआ एवं स्वतंत्रता की इच्छा निर्माण हुईl समर्थ जनता को समझाते थे स्वयं को शतगुणों से समृद्ध करों, आलस को त्यागो, केवल भाग्य को दोष मत दो-प्रयत्न ही ईश्वर है, जैसे को तैसा इस उक्ति का पालन करों,चतुराई से कार्य करों, वर्णानुसार कार्य करों, जो-जो बुरा है उसका त्याग कर वंदनीय कार्य करों, संकटों से मत डरों, सभी क्षेत्रों में भव्य-दिव्य को अपनाना सीखों, संगठित रहो, दूसरों के मन को संभालना सीखों,विवेक से कार्य करों, सतत अभ्यास करते रहो, सतत प्रयत्नशील रहो, प्रयत्न करने पर ही सफलता प्राप्त होती है, विवाद की स्थिति से दूर रहो, स्वच्छता का ध्यान रखो, जीवन सोने में मत बिताओं, स्वाध्याय करों, सद्विचारि से मित्रता करों, अपना व्यवहार एवं बर्ताव अच्छा रखो,सादा जीवन तथा उच्च विचार रखो, कलाओं को आत्मसात करों, उपासना करते रहो, बड़ों का सम्मान करों,अंतरात्मा में ही परमेश्वर का वास है उसे देखो, मतभेदों को भूल जाओ, दूसरों पर निर्भर मत रहो, स्वयं मेहनत करों, आँख बंद कर किसी पर विश्वास मत करों, आपस में विवाद-झगड़ा मत करों, शत्रु को पहचानकर संगठित होकर उसका सामना करों, संयम रखो, सार्थक कार्य हेतु जीवन व्यतीत करोंl यह सब बताकर समर्थ जीवन का सार ही लोगों को दे रहे थेl कहते है गुरील्ला युद्ध जैसे समर्थ ने गुरील्ला काव्य जनता को दिया l
"केल्याने होत आहे रे, आधी केलेची पाहिजे"अर्थात प्रयत्न करों, बिना प्रयत्न कुछ भी संभव नहीं l ऐसे कई सूत्र जनजागृति का आधार बनें एवं जनता में शत्रु-मित्र, न्याय-अन्याय, अपना-पराया, लाभ-हानि देखने का दृष्टिकोण निर्माण हुआl आगे चलकर शिवाजी महाराज के 'स्वराज्य' स्थापना के लिए यह दृष्टिकोण सहयोगी सिद्ध हुआ l
संदर्भ -- राजा शिवछत्रपति
लेखक -- महाराष्ट्र भूषण व पद्म विभूषण बाबासाहेब पुरंदरे
संकलन -- स्वयंसेवक एवं टीम
: हिन्दवी स्वराज्य स्थापना का 350 वा वर्ष श्रृंखला 21,= हिन्दवी स्वराज्य की भावभूमि तैयार करने में संतों का योगदान भाग चार
श्री समर्थ रामदास स्वामी स्वराज्य स्थापना के पश्चात् भी शिवाजी महाराज को मार्गदर्शन प्रदान करते रहें l शिवाजी महाराज न्यायप्रिय, प्रजाप्रेमी, धर्मात्मा, धर्मपरायण, पुण्यश्लोक एवं भोगवाद से निवृत्त थेl अतः यह गुरु-शिष्य की जोड़ी अनोखी थी l
शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के पश्चात् महाराज के मन में विचार आता था कि यह गौब्राह्मणप्रतिपालन का कार्य ठीक से चल रहा है अथवा नहीं यह बतानेवाला व्यक्ति अर्थात गुरु एवं उसका मार्गदर्शन आवश्यक हैl सतत प्रयास था गुरु के दर्शन का, कहते है समर्थ रामदास स्वामी ने महाराज को सपने में दर्शन देकर बताया-"गौब्राह्मण व धर्म के संरक्षण के लिए तुम्हारा जन्म हुआ है, राजा जनक ने जैसे शासन चलाया वैसे ही शासन चलाओ l "
समर्थ रामदास ने शिवाजी महाराज को एक पत्र लिखा ---
तुम निश्चय के महामेरु हो, जनता का आधार हो, श्रीमन्त योगी हो, नरपति, हयपति, गजपति, गड़पति होl तुम्हें यश प्राप्त हो, कीर्ति प्राप्त होl तुम आचारशील, दानशील व धर्मशील होl तुम शूरवीर हो, तुममें धैर्य हैl सुल्तानों के कारण तीर्थक्षेत्रों की हानि हुई, धर्म का नाश हुआ ऐसे में देवधर्म, गौब्राह्मणों की रक्षा की प्रेरणा श्री नारायण ने तुम्हें दीl तुम्हारे दरबार में पंडित,पुजारी,याग्यीक,वैदिक, तार्किक सभी हैl तुम्हारे समान धर्म की रक्षा करने वाला इस पृथ्वी पर नहीं हैl अनेक दुष्टों का तुमने संहार किया, अनेकों सज्जनों को तुमने आश्रय दिया, तुम वास्तव में शिव-कल्याण राजा होl तुमने धर्म की स्थापना की है तथा अब इसकी रक्षा करना तुम्हारा कर्तव्य हैl गुरु बड़ा महान था, पत्र के अंत में समर्थ लिखते है कि प्रसंग न होते हुए भी लिखा इसलिए क्षमा याचना भी करते हैl यह जोड़ी अनोखी थी, एक दूसरे के सम्मान की रक्षा करती थी, ऐसा कहते है समर्थ रामदास स्वामी बैठे हुए हो तो भी महाराज उनके सामने खड़े रहते थे lशिवाजी ने समर्थ रामदास के पास अनुग्रह प्रदान करने की याचना की l अनुग्रह देते समय समर्थ ने महाराज को 'आत्मानात्मविचार' का बोध कियाl "पंचमहाभूत भी नश्वर है, उससे बना शरीर भी नश्वर है परन्तु इस शरीर में जो आत्मा है वह ईश्वर का अंश है एवं नश्वर नहीं हैl" इस बोध के कारण महाराज हमेशा कहते थे कि यह हिन्दवी स्वराज्य जनता का है व प्रत्येक व्यक्ति इसका राजा हैl प्रसाद स्वरुप समर्थ ने महाराज को एक श्रीफल, मुट्ठीभर मिट्टी, चार मुट्ठी कंकर, दो मुट्ठी अश्व की विष्ठा दीl इस प्रसाद का निहितार्थ था-श्रीफल कल्याण हेतु दिया था, मिट्टी अर्थात पृथ्वी(जमीन), कंकर अर्थात गड़ अथवा दुर्ग व अश्वविष्ठा अर्थात अश्वदल प्राप्त होगाl अनुग्रह प्राप्त होने के पश्चात् महाराज के मन की स्थिति बहुत विचित्र हुई, उनका मन फिरसे रायगड़ जाने के लिए तैयार नहीं थाl महाराज ने समर्थ से कहा, "मैं अब आपकी सेवा में रहना चाहता हूँl तब समर्थ ने महाराज को उपदेश दिया, तुम क्षत्रिय हो, क्षात्रधर्म का पालन करों, प्रत्येक व्यक्ति ने अपने धर्म के अनुसार कार्य करना चाहिएl तुमने अगर क्षात्रधर्म का त्याग किया तो गौब्राह्मणों का प्रतिपालन कौन करेगा? तुम्हारा जन्म ही इसी कार्य के लिए हुआ हैl जिस प्रकार अर्जुन ने ईश्वर कृपा से अपने मोह को त्यागकर कर्तव्य निभाया तुम्हें भी वैसे ही अपना कर्तव्य निभाना हैl "
समर्थ ने बताया, "तुमने जो कार्य हाथ में लिया है वह निर्विघ्नरूप से संपन्न होगा, इसमें संदेह नहीं हैl तुम्हारे सभी साथी तुम्हारे लिए जान की बाजी लगाने के लिए तत्पर रहते है, उनको हमेशा साथ रखना व शासन चलानाl "यह उपदेश राजधर्म एवं क्षत्रियधर्म था l
सन्दर्भ -- राजा शिवछत्रपति
लेखक -- महाराष्ट्र भूषण व पद्म विभूषण बाबासाहेब पुरंदरे
श्रीसमर्थ चरित्रामृत,संग्राहक --कै. वा. द. पळनिटकर गुरूजी
संकलन -- स्वयंसेवक एवं टीम
प्रस्तुति अशोक जी पोरवाल
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