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सत्य की धधकती चिंगारी


23 मार्च : पूण्य तिथि विशेष


शीर्षक: भगत सिंह की फांसी माफ कर चुके थे ब्रिटिश वायसराय



शब्द: ओम द्विवेदी


          1931 में आज ही के दिन शहीद हो चुके महान क्रांतिकारी भगत सिंह के बारे में यह बात पढ़कर एक बार तो हम और आप भरोसा न करें कि "ब्रिटिश वायसराय ने भगत सिंह की फांसी की सजा माफ कर दी थी"। परन्तु शायद ऐसे कई पहलु व सच्चाइयाँ है जिनसे हम अनभिज्ञ रहे है। स्वतंत्रता प्राप्ति के उस काल मे लिखी गयी कई किताबे, जो वर्तमान में देशभक्त युवाओं के लिए किन्ही मान्यता प्राप्त राष्ट्रग्रंथो से कम नही है, जिनके एक एक शब्द, एक एक पंक्तियां राष्ट्र वंदना व जनक्रांति से भरे हुए है, जिनमें ऐसे अनेक सच लिखे हुए है जो कभी सामने न आ सके।

          भगत सिंह की फांसी की सच्चाई भी उसी समय की एक किताब में दबी रह गयी, जिसे भगत सिंह के मित्र और लाहौर की एक अन्य घटना में उनके सह आरोपी रहे जितेंद्र नाथ सान्याल ने लिखी थी। क्रांतिकारियों की छोटी से छोटी बातों और हरकतों से ब्रिटिश सरकार इतना घबराती थी कि इस किताब को भी प्रकाशन के पूर्व ही जब्त कर लिया गया। प्रकाशन से घबराए अंग्रेज ये नही जानते थे कि वो कागजी शब्दों को तो जब्त कर सकते थे किंतु मन पर लिखी उन बातों को नही जो सान्याल ने स्वयं की आखों से देखी थी। पंजीकृत मुकदमे में सबूतों के अभाव में सान्याल को न्यायालय द्वारा आरोप मुक्त कर दिया गया। जेल से बाहर आते ही जितेन्द्र नाथ ने भगत सिंह की उसी सच्चाई के साथ किताब का दोबारा प्रकाशन कराया और किताब को नया नाम दिया, "अमर शहीद सरदार भगत सिंह"।

          28 सितंबर 1907 को जन्मे भगत सिंह पर जलियांवाला बाग हत्याकांड का गहरा असर था। जलियांवाला बाग की थोड़ी सी मिट्टी वो हमेशा अपने पास रखते थे, जो उन्हें अंग्रेजी हुकूमत को खत्म करने का संकल्प याद दिलाया करती थी। असहयोग आंदोलन का बिना निष्कर्ष बंद होना, भगत को अंदर तक निराश कर गया। तभी, आज़ाद की आक्रमक शैली भगत सिंह को गरम दल की ओर मोड़ ले गई। अहिंसा की वह नन्ही-सी लौ अब हिसंक चिंगारी बन चुकी थी। जल्दी ही वे भगवती वर्मा, गणेश शंकर विद्यार्थी, सुखदेव सहित अन्य के संपर्क में आये।

          किताब में जितेंद्र नाथ ने भगत सिंह को दो क्रांतिकारी लाला लाजपतराय और रास बिहारी बोस से प्रभावित बताया। भगत सिंह ने साइमन कमीशन के विरोध के दौरान चीफ स्कॉट के द्वारा कराए गए लाठीचार्ज से गई लालाजी की मौत का बदला लेने का मन बना लिया था। राजगुरु के साथ मिलकर साजिश रची गयी किंतु गलती से स्कॉट की जगह सांडर्स की हत्या कर दी, जिसके चलते भगत को लाहौर छोड़ना पड़ा।

          अंग्रेजों द्वारा भारतीयों के अधिकार हनन और दमनकारी नीतियों के विरोध में खुद भगत सिंह ने केन्द्रीय विधान सभा में बम फेंकने की योजना बनाई। किसी को आहत न करते हुए केवल सरकारी ध्यानाकर्षण के लिए 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने विशेष सत्र के दौरान विधान सभा भवन में बम फेंका। अपनी विभिन्न मांगों के पर्चे उड़ाते हुए बिना भागे अपनी गिरफ्तारी करवाई। भगत ये जान गए थे कि देश को उनके बलिदान की आवश्यकता है और उनकी मृत्यु अनेक क्रांतिकारियों को जन्म देगी। यही कारण था कि सुनवाई के समय भगत सिंह ने बचाव के लिए वकील की नियुक्ति से भी मना कर दिया। 7 अक्टूबर 1930 को अलग अलग मामलों में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी की सजा सुना दी गयी। फांसी की तारीख तय की गई... 24 मार्च 1931।

          पुस्तक बताती है, इधर फांसी की सजा होने के पहले ही देश भर में सजा माफ करने के लिए आंदोलन शुरू हो गए। जिसकी उग्रता भाँपते हुए तत्कालीन वायसराय लार्ड इर्विन ने भगत सिंह व उनके साथियों की फांसी की सजा को कालापानी में बदलने का आदेश जारी कर तामिली तार से देने के लिए कहा। मुख्य सचिव ने यह संदेश भेज भी दिया था। पुस्तक में लिखा है कि सडयंत्र के तहत न केवल अंग्रेज अधिकारी ने पोस्ट मास्टर जनरल को फांसी न देने के महत्वपूर्ण संदेश को तार की जगह डाक से भेज देरी करवाई बल्कि तात्कालिक पंजाब सरकार को समय पूर्व यानि 23 मार्च को ही तीनो क्रांतिकारियों को फांसी पर लटका देने के आदेश दे दिए गए।

          सान्याल ने अपनी पुस्तक में यह भी बताया है कि वायसराय लार्ड इर्विन ने भगतसिंह व साथियों की फांसी के कुछ समय बीत जाने के बाद अपनी आत्मकथा में इस पूरे घटनाक्रम को लोगों के नाम सहित लिखा हैं। लार्ड इर्विन ने आत्मकथा में लिखा है कि उग्र होते आंदोलन व हिंदुस्तानी प्रतिनिधियों की मुलाकात से उनके सामने जहाँ पहला विकल्प यह था कि कुछ न करे और फांसी होने दे, वहीं दूसरा विकल्प यह था कि फांसी को बदलकर सजा कम कर दी जाए। मिस्टर गांधी तथा पं मदन मोहन मालवीय के सजा माफ किये जाने हेतु दो पत्रों के दबाव पश्चात फांसी की सजा माफ कर दी गयी थी, जिसके प्रमाण दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में रखे कागजात सहित लार्ड इर्विन के रोज-नामचे में मिलते है। फांसी दिए जाने के बाद, गरम दल के कई क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों के साथ-साथ महात्मा गांधी के मौन को भी भगत सिंह की मौत का जिम्मेदार माना। कांग्रेस अधिवेशन के समय भी महात्मा गांधी को काले झंडे दिखाए गए थे। जबकि महात्मा गांधी द्वारा दी गई सजा माफी की अर्जी से स्वयं भगत सिंह बिल्कुल खुश नही थे। अंततः फांसी टाली नही जा सकी क्योंकि उसका चुनाव खुद 'शहिद-ऐ-आज़म' भगत सिंह ने किया था।


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