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पुण्यश्लोक अहिल्यादेवी होलकर त्रिशताब्दी वर्ष श्रृंखला= 63 अहिल्यादेवी और तुकोजीराव भाग तीन

 पुण्यश्लोक अहिल्यादेवी होलकर त्रिशताब्दी वर्ष 

श्रृंखला= 63 अहिल्यादेवी और तुकोजीराव भाग तीन 

अहिल्यादेवी को लगा कि तुकोजीराव समझ जायेंगे और दोबारा ऐसा नहीं होगा फिर भी तुकोजीराव के व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं दिखा। कुछ दिन के बाद तुकोजी ने फिर से 1000 रुपये की ‘वरात’ नहेखान को भेज दी। तुकोजीराव के व्यवहार के बारे में अहिल्यादेवी को जैसे ही सूचना मिली वे चिंतित हुई, तुकोजीराव का व्यवहार दिन-प्रतिदिन बिगड़ता गया। तुकोजी के आर्थिक व्यवहार पर लगाम लगाने की आवश्यकता थी। अहिल्यादेवी ने तत्परता से इंदौर के कमाविसदार त्रिम्बक राजदेव को पत्र लिखा :- 


“इस ‘वरात’ की रकम मेरी आज्ञा के बिना नहेखान को नहीं दे यदि फिर भी दी जाती हैं तो सरकार से मंजूरी नहीं होगी, अत: आपको ही ऋण चुकाना होगा।”


अहिल्यादेवी इस प्रकार से तुकोजीराव पर नियंत्रण बनाकर रखती थी। वे यह भी जानती थी कि यदि तुकोजीराव के गड़बड़ व्यवहार की जानकारी प्रशासन में बैठे अधिकारियों को पता लगी तो वे नाजायज फायदा उठा सकते हैं इसलिए वे सतर्क थी। बिना किसी को बताए ही तुकोजीराव के आर्थिक व्यवहार पर लगाम लगाने की कोशिश करती थी। तुकोजीराव आर्थिक मामलों में बहुत गड़बड़ी करते थे किन्तु देव-धर्म के कार्यों के प्रति वे सजग थे और अहिल्यादेवी के नक्शेकदम पर आगे बढ़ रहे थे। 


तुकोजीराव अक्सर आर्थिक मामलों में गड़बड़ करते थे। उनका खर्चा दैनिक आय की जरूरत से ज्यादा था। स्वर्गीय मल्हारराव के समय पंढरपुर में गंगाधर भट को पुजारी के रूप में नियुक्त किया गया था। गंगाधर भट के बाद उनके पुत्र वेदमूर्ति को पुजारी के रूप में नियुक्त किया गया था। होलकर सरकार कि ओर से वेदमूर्ति को सालाना 100 रुपये की वृत्ति दी जाती थी। तुकोजीराव ने इस वृत्ति को बढ़ाकर 200 रुपये कर दी। तुकोजीराव ने शेगाँव के कमाविसदार को पत्र लिखकर सख्त आदेश दिए:- 

 “प्रतिवर्ष मंदिर में भोग-प्रसाद के लिए 200 रुपये वेदमूर्ति को दिए जाये। मेरा पत्र मिलने की प्रतीक्षा में वेदमूर्ति को रुपये देना नहीं टाले।”

तुकोजीराव के धार्मिक व्यवहार से साफ दिखाई देता हैं कि वे अहिल्यादेवी और मल्हारराव द्वारा किए गए धार्मिक कार्यों का सम्मान करते थे तथा उन्हें आगे बढ़ाने में भी तत्पर थे। अहिल्यादेवी और तुकोजीराव के बीच आपसी मनमुटाव अवश्य थे किन्तु आपसी मनमुटाव को धर्म के बीच आड़े नहीं आने दिया। 


अहिल्यादेवी पुणे दरबार की सेवक थी किन्तु कभी-कभी रूपयों को लेकर  उनके बीच मनमुटाव भी रहता था। नाना फड़णीस और पेशवा कभी भी तुकोजीराव से हिसाब नहीं लेते थे। अहिल्यादेवी जानती थी कि तुकोजीराव नाच-गाने तथा अन्य फालतू कामों में राजकोष का धन खर्च करते हैं फिर भी पुणे दरबार उन पर आपत्ति नहीं लेता हैं। 

तुकोजीराव और अहिल्यादेवी में मनमुटाव की स्थिति थी। तुकोजी हमेशा मुहिम पर होते थे। अहिल्यादेवी महेश्वर में थी। दो महीने के बाद तुकोजीराव इंदौर आए। तुकोजीराव को लोकमाता से मिलने महेश्वर जाना चाहिए था किन्तु वे नहीं गए। अहिल्यादेवी को गुप्तचरों से पता चला की तुकोजीराव इंदौर आए हैं लेकिन महेश्वर नहीं आए हैं। अहिल्यामाता ने अपना प्रतिनिधि पांडुरंग शंकर पारनेकर को तुकोजीराव का हाल पूछने भेजा। यह अहिल्यामाता का व्यक्तिगत राजदूत भी माना जाता था। 

 पारणेकर इंदौर पहुंचा। बातचीत के प्रारंभ में पारणेकर ने तुकोजीराव से साधारण बातें की किंतु तुकोजीराव जान गए थे कि पारणेकर अहिल्यादेवी की ओर से आया हैं। अतः दोनों के बीच अहिल्यामाता से संबंधित बातचीत शुरू हुई। 

पारणेकर ने कहां: 

“मातुश्री से आपका व्यवहार सही नहीं चल रहा हैं तुकोजी साहब।” 

  तुकोजीराव ने कहां:

“हमारी तबियत ठीक नहीं। बहुत हालत ख़राब हैं, देखो मुहिम से भी लौट आया हूँ। कहीं आने-जाने का मन नहीं।” 

  पारणेकर ने कहां: 

“स्वर्गीय सूबेदार मल्हारराव का अपनी बहू अहिल्या पर पूरा भरोसा था। पुणे के नाना साहेब पेशवा भी बाई साहब के कामकाज और धर्म परायणता का सम्मान करते हैं। उनके दान-धर्म की कीर्ति चारों ओर फेल गई हैं। सभी ओर से विद्वान अहिल्यामाता के दर्शन करने महेश्वर आते हैं। पुणे के पेशवा के पास अहिल्यामाता का बड़ा रुतबा हैं। नाना फड़णीस, हरिपंत तात्या माता से दबकर रहते हैं।”


 तुकोजीराव पहले सब ध्यान से सुन रहे थे लेकिन अब उन्होंने अहिल्यामाता के संबंध में सम्मानपूर्वक बोला। 

 “अरे! अहिल्यामाता ही सब कुछ है। श्रीमंत पेशवा पर तो उनका दबाव हैं लेकिन हमारा नहीं। मैं मन की गहराई से बता रहा हूँ कि अहिल्यामाता के बारे में मेरे मन में कौई दूसरी राय नहीं हैं।” 

 पारणेकर की बात से तुकोजीराव बहुत अच्छी तरह समझ गए थे कि पारणेकर उनके मन का हाल जानने के उद्देश्य से आए है। अतः तुकोजीराव ने पारणेकर की खातिरदारी करवाई। इंदौर में कुछ दिन रहने के बाद पारणेकर पुनः महेश्वर पहुँचा। 

तुकोजी से हुई सारी बातें उन्होंने जो की त्यों अहिल्यादेवी को बताई। अहिल्यामाता जानती थी कि तुकोजीराव उनका सम्मान करते हैं फिर भी आर्थिक बर्ताव हमेशा टेढ़ा ही रहता था। 


नाना फड़णीस और महादजी शिंदे दोनों के आपसी मनमुटाव के बारे में जानते थे। दोनों ने मिलकर अहिल्यामाता और तुकोजीराव के आपसी मनमुटाव दूर करने की कोशिश करने लगे। दोनों के बीच के मनमुटाव को दूर करने का मुख्य उद्देश्य था कि अहिल्यादेवी के खजाने को फौज के लिए काम में लिया जा सके। नाना फड़णीस को यह लगता था की अहिल्यादेवी दानधर्म में राजकोष का रुपया खर्च करती थी। महादजी शिंदे सच्चाई जानते थे कि अहिल्यादेवी अपने व्यक्तिगत खासगी धन से ही दानधर्म में रुपये खर्च करती है फिर भी नाना फड़णीस की हाँ में हाँ करना आवश्यक था। महादजी शिंदे  होलकर से संबंध बिगाड़ना नहीं चाहते थे। इस स्थिति में नाना की बात में सहमति बना लेना सही था वैसे भी अहिल्यामाता इन सब बातों को जानती थी। निरंतर—-

संदर्भ  - बहुआयामी व्यक्तित्व अहिल्यादेवी भाग एक 

लेखिका - आयुषी जैन 

प्रकाशक - अर्चना प्रकाशन भोपाल

संकलन- स्वयंसेवक एवं टीम 

🙏🕉️हर हर महादेव🕉️🙏

प्रस्तुति अशोक जी पोरवाल 

 पुण्यश्लोक अहिल्यादेवी होलकर त्रिशताब्दी वर्ष 

श्रृंखला=64 भारत में अहिल्यादेवी भाग एक 

भारतवर्ष की शिक्षा प्रणाली मे ‘धर्म’ का हमेशा से स्थान रहा हैं, इस धार्मिक शिक्षा का परिणाम था कि हमारे देश मे संघमित्रा, सीता और देवी अहिल्याबाई होलकर जैसी महान नारियों की परंपरा रही हैं और आगे रहेगी क्योकि उनकी शिक्षा, उनके जीवन चरित्र की प्रेरणाएँ, भारत की देवीयों, कन्याओं प्रभु के चरणों के प्रसाद स्वरूप सर्वदा प्राप्त करती रहेगी ।    ( स्वामी विवेकानंद ) 


देवी अहिल्याबाई उन नारी रत्नों मे से एक थी जिस पर भारत गर्व करता हैं। उनके जीवन मे कई ऐसे गुण थे जिनका अनुसरण करना देश के लिए आवश्यक हैं। अहिल्याबाई होलकर का नाम हमारे देश के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास मे एक पावन नाम की तरह अंकित हैं। अहिल्याबाई दैवीय गुणों का मानवीय रूप थी। उनमें देशभक्ति तथा जन-कल्याण की भावना कूट-कूटकर भरी हुई थी, वे धर्मपरायण, न्यायप्रिय तथा कुशल प्रशासक होने के साथ-साथ सद्चरित्रता, विनम्रता तथा करुणा की देवी थी। 

उन्होंने सभी धर्मो और जातियों के प्रति हमेशा बराबर तथा आदर की दृष्टि रखी। देवी अहिल्याबाई ने मध्यकाल की सामाजिक कुरीतियों का डटकर विरोध किया तथा अपने राज्य के असामाजिक तत्वों पर विजय पाकर राज्य मे शांति की स्थापना की। उन्होंने अपने शासनकाल मे कभी भी अन्याय, पक्षपात और क्रूरता की इजाजत नहीं दी। हम सभी को विशेषकर हमारे युवावर्ग को उनके आदर्शों, कार्यों और विचारो से शिक्षा लेकर राष्ट्र के निर्माण में योगदान देना चाहिये ।       —( अटलबिहारी वाजपेयी ) पूर्व प्रधानमंत्री भारत 



देवी अहिल्याबाई होलकर का नाम आते ही सर श्रद्धा से झुक जाता हैं। माता अहिल्याबाई होलकर ने उस कठिन परिस्थितियो मे भी न्याय और सुशासन की जो मिसाल कायम की वह अतुलनीय हैं। 

       —शरद पवार  ( पूर्व केंद्रीय कृषि मंत्री, पूर्व मुख्यमंत्री, महाराष्ट्र राज्य ) 


अपनी न्यायप्रियता, कुशल प्रशासन, धर्मपरायणता, सर्वधर्मसम्भाव, प्राणिमात्र के लिये दयाभाव, प्रजावत्सलता और लोकोपयोगी कार्यो के कारण वे भारतीय स्त्री रत्नों मे अग्रगण्य मानी जाती हैं। छोटे से राज्य की स्वामिनी होकर भी उनकी निर्माण कार्यों का क्षेत्र केदारनाथ से रामेश्वर तथा द्वारका से जगन्नाथपुरी तक फैला था। राष्ट्रीय एकात्मता की प्रतीक इस लोकमाता की प्रतिमा निश्चित ही प्रेरणामूर्ति होगी। — सुमित्रा महाजन (पूर्व लोकसभा अध्यक्ष) 


हिंदुस्तान मे साधु-संतों की भूमिका मे असंख्य दिव्य व्यक्तियों ने काम किया हैं, उनमें अहिल्याबाई का स्थान पहला हैं। उनके बाद का स्थान मीराबाई का हैं। यह दोनों राजघराने से होते हुवे भी परमेश्वर के रूप मे तादात्म्य हो गई थी। यह एक दिव्य बात हैं। — कमलाबाई  किबी (इंदौर) 


भारत की विरासत, संस्कृति और शक्ति को समृद्ध करने मे लोकमाता देवी अहिल्याबाई होलकर का महत्वपूर्ण योगदान हैं। अपने लोककल्याणकारी कदमों की वजह से वह 18 वी सदी की महान राज्यकर्ता के रूप मे जानी जाती हैं। — स्वामी अवधेशानंद गिरी (महामंडलेश्वर, जूना अखाड़ा) निरंतर—-

संदर्भ  - बहुआयामी व्यक्तित्व अहिल्यादेवी भाग एक 

लेखिका - आयुषी जैन 

प्रकाशक- अर्चना प्रकाशन भोपाल

संकलन- स्वयंसेवक एवं टीम 

प्रस्तुति... अशोक जी पोरवाल

🕉️हर हर महादेव 🙏🕉️

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