हिन्दवी स्वराज्य स्थापना का 350 वां वर्ष श्रृंखला 47 = पुरंदर समझौता भाग दो
महाराज ने दि.19 नवम्बर 1665 को राजगढ़ से प्रस्थान कियाl पुरंदर करार के अनुसार महाराज को मिर्जा राजा की सहायता करनी थीl मिर्जा राजा बीजापुर पर आक्रमण करने वाले थेl अब इस संघर्ष के साथ में मिर्जा राजा महाराज को औरंगजेब से भेंट करने के लिए मानसिक रूप से तैयार करने का प्रयत्न कर रहे थेl बादशाह की आप पर कृपा होगी, आदिलशाही व क़ुतुबशाही को समूल नष्ट करने के लिए बादशाह पैसा एवं युद्धसामग्री देंगेl आप दख्खन के मालिक बने रहोगेl बस एक बात याद रखने की आवश्यकता होगी-आप बादशाह के निष्ठावान सरदार होंगे तथा बादशाह द्वारा दी गयी जिम्मेदारी को समय-समय पर पूर्ण करना होगाl परन्तु इसमें मुगल सल्तनत के धन, सेना व युद्धसामग्री से आपके शत्रु खतम होंगेl बादशाह के साम्राज्य का विस्तार होगा एवं आपके वैभव में वृद्धि होगीl बादशाह से व्यर्थ शत्रुता करके स्वयं का नाश होगा lमिर्जा राजा ने अनुभव किया था शिवाजीराजे शूरवीर है, पराक्रमी है, उनकी शक्ति व्यर्थ जा रही है, स्वराज्य निर्माण मृगमरिचिका समान हैl अगर राजे बादशाह के मनसबदार बनेंगे तो शक्ति व्यर्थ नहीं जाएगी l
अब महाराज भी सोचने लगे मिर्जा राजा जैसा कह रहे है वैसे बादशाह के धन व युद्धसाहित्य से दोनों शत्रुओं को समाप्त किया तो स्वराज्य को लाभ ही होगाl पहले मनसबदार बनकर स्वराज्य को शक्तिशाली बनाया जा सकता है, बाद में औरंगजेब को समाप्त कर एकछत्र स्वराज्य निर्माण किया जा सकता हैl बादशाह से खुली लड़ाई में स्वराज्य संवर्धन संभव नहीं हो रहा हैl स्वराज्य की प्रगति की गति धीमी हैl पुरंदर करार जैसी घटनाओं से तो हाथ में शेष कुछ नहीं रहता हैl अब यह नया प्रयोग करके देखते है, बादशाह की कृपा का अपने अंतिम लक्ष्य के लिए उपयोग कर लेते हैl ऐसा सोचकर महाराज ने फिर एक बार स्वराज्य हित के लिए दूरदृष्टी से विचार कियाl एक और बात थी, जंजीरा गढ़ सिद्दी के कब्जे में था, सिद्दी औरंगजेब का नौकर था, उसे भी समूल नष्ट किया जा सकेगाl महाराज बुद्धिमान व
चतुर थे, उन्होंने यह भी विचार किया कि आज सौ-सवा सौ साल हुए,कौन, कहाँ विदेश से आये मुगल हिंदुस्थान पर शासन कर रहे है एवं राजपूत भी इनके सामने झुक रहे है, मुगलों की ताकत क्या है वह भी देखेl संभव हुआ तो राजनीती अथवा सीख, यह सीखा हुआ स्वराज्य निर्माण में कही न कही काम आएगा हीl
मिर्जा राजा औरंगजेब से शिवाजीराजे को दिल्ली बुलाने के लिए सतत पत्राचार कर रहे थेl परन्तु औरंगजेब की ओर से अभी तक उस सम्बन्ध में उत्तर नहीं आया था, यह जनवरी 1666 का समय था l
दि.22 जनवरी 1666 को शाहजहां का निधन हुआ-स्थान आगरे का किला जहाँ औरंगजेब ने अपने पिता को बंदी बनाकर रखा थाl इसके बाद दि.15 फरवरी 1666 को औरंगजेब मातमपुरसी व जियारत के लिए आगरा पहुँचाl इस समय औरंगजेब दिल्ली से अपना दरबार साजो- सामान सहित आगरा लेकर आयाl इसके बाद औरंगजेब ने मिर्जा राजा को पत्र भेजा-"शिवाजी भोसले को आगरा भेज दोl "मिर्जा राजा ने यह सूचना शिवाजीराजे को दी l
सन्दर्भ -- राजा शिवछत्रपति
लेखक -- महाराष्ट्र भूषण व पद्म विभूषण बाबासाहेब पुरंदरे
संकलन -- स्वयंसेवक एवं टीम
स्वराज्य स्थपना का 350 वां वर्ष श्रृंखला 48 = शिवाजी महाराज की प्रसिद्ध आगरा भेंट भाग एक
महाराज ने आगरा जाने से पहले स्वराज्य की चाकचौबंद व्यवस्था करने के लिए उस दिशा में काम करना प्रारम्भ कियाl सम्पूर्ण क्षेत्र , समुद्री आरमार की निगाहदस्ती करना शुरू कियाl इसके पीछे एक ही विचार था, अपनी अनुपस्थिति में भी स्वराज्य का कारोबार, सावधानता से एवं अनुशासन से चलना चाहिए l
राजगढ़ पर वातावरण चिंताजनक होने लगा, औरंगजेब से उसके दरबार में जाकर मुलाक़ात करना यह खतरे से भरा काम थाl अपने क्षेत्र से हजारों मील दूर तथा घातपात की आशंका क्योंकि औरंगजेब की ख्याति ही ऐसी थी, जिसने तख़्त के लिए पिता को उम्रकैद एवं सगे भाइयों का कत्ल व उनके साथ नजदीकी रिश्तेदारों को भी मौत के घाट उतार दिया थाl उस औरंगजेब से मुलाक़ात यह विष की परीक्षा थी, महाराज के स्वयं के 'शिवत्व'की परीक्षा थीl साथ में संभाजीराजे भी जानेवाले थेl ऐसा कहते है, जिजाबाई माँसाहेब ने केवल शिवाजी के जन्म के समय प्रसूतिवेदना को नहीं सहा था, स्वराज्य स्थापना जैसा बड़ा प्रण करने के पश्चात् ये वेदनाएं उनकी जीवनभर की सखी बन गयी थीl पग-पग पर खतरा था l
महाराज अपने साथियों को समझा रहे थे, धीरज से, खबरदारी से एवं संगठित होकर स्वराज्य की चिंता करनाl श्रीकृपा से हम लौटकर आएंगे ही परन्तु कुछ अघटित घटना घटी तो भी स्वराज्य निर्माण का ईश्वरी कार्य माँसाहेब के मार्गदर्शन में निरंतर चलते रहना चाहिए l
औरंगजेब ने इस यात्रा हेतु खर्चे के लिए एक लाख रूपये राशि स्वीकृत की थीl साथ में एक विशेष प्रतिनिधि गाझी बेग आगरा तक महाराज के साथ रहनेवाला था l
महाराज के साथ साढे तीन सौ मराठा सैनिक थेl सामान ले चलनेवाले सौ लोग व पालकियों के कहार थेl विशेष साथी भी थे-निराजी रावजी,
त्रम्बक सोनदेव, रघुनाथ बल्लाळ, बाजी जेधे, माणको सबनिस, दत्ताजी त्रम्बक, हिरोजी फर्जन्द, राघोजी मित्रा, दावलजी गाडगे, मदारी मेहतर, रामजी, कविन्द्र परमानन्दl मिर्जा राजा ने अपना तेजसिंह कछवा नाम का खास सरदार महाराज के पास भेजा था जो आगरा तक महाराज के साथ रहनेवाला थाl सबने प्रस्थान किया-दि.05 मार्च 1666
शिवाजी महाराज अपने साथियों के साथ दि.11 मई 1666 को आगरा पहुँचेl दि.12 मई 1666 को महाराज को औरंगजेब के दरबार में जाना थाl उस दिन औरंगजेब की पचासवीं सालगिरह का समारोह था l
वास्तव में शिवाजीराजे जब आगरे की सरहद में पहुँचे उस समय उनके स्वागत के लिए किसी खास व्यक्ति का आना अपेक्षित थाl परन्तु ऐसा नहीं हुआ, मिर्जाराजे का बेटा रामसिंह ने मुंशी गिरधरलाल को स्वागत की रस्मअदायगी के लिए भेजाl दरबारी रीति रिवाज के अनुसार बादशाह का कोई प्रतिनिधि वहाँ आना चाहिए था, साथ में महाराज के स्वागत में उन्हें वस्त्रालंकार पेश करता, उनके रहने की उचित व्यवस्था की जानी चाहिए थी तथा दूसरे दिन शोभायात्रा के रूप में उन्हें दरबार में मुलाक़ात हेतु ले जाना चाहिए थाl परन्तु सबकुछ इसके विपरीत हुआl महाराज की रहने की व्यवस्था भी एक सामान्य सी धर्मशाला में की गयी थी l
दूसरे दिन जब दरबार में जाना था, उस समय भी इतने सम्माननीय व्यक्ति के लिए किसी विशेष व्यक्ति को महाराज के पास भेजना चाहिए थाl सम्माननीय इसलिए की स्वराज्य निर्माण के प्रण के कारण महाराज की कीर्ति पताका चारों ओर लहरा रही थीl इस समय भी औरंगजेब ने रामसिंह जो ढाई हजारी सरदार था एवं मुखलिसखान जो डेढ़ हजारी सरदार था इनको भेजाl इसके साथ औरंगजेब ने रामसिंह को एक और महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी थी-महल के चारों ओर के पहरे की जिम्मेदारीl ऐसा होने के कारण रामसिंह ने फिर मुंशी गिरधरलाल को महाराज के पास भेजा तथा स्वयं की जिम्मेदारी से मुक्त होने के बाद महाराज के पास जाने के लिए निकला, इसमें समय चूक गयाl अब गलतफहमी देखो महाराज व मुंशी एक रास्ते से दरबार जाने के लिए निकले एवं रामसिंह व मुखलिसखान दूसरे रास्ते से महाराज को लेने निकलेl सभी दरबार पहुँचते -पहुँचते दिवान-ए-आम का समारोह समाप्त हुआ था l निरन्तर
सन्दर्भ -- राजा शिवछत्रपति
लेखक -- महाराष्ट्र भूषण व पद्म विभूषण बाबासाहेब पुरंदरे
संकलन -- स्वयंसेवक एवं टीम:
हिन्दवी स्वराज्य स्थापना का 350 वां वर्ष श्रृंखला 49 = शिवाजी महाराज की प्रसिद्ध आगरा भेंट भाग दो
दिवान-ए-आम के बाद औरंगजेब दिवान-ए-खास में आता थाl दिवान- इ-आम में सभी सरदार, दरबारी अधिकारी, प्रदेश के निमंत्रित लोग व परदरबार के आमंत्रित उपस्थित रहते थेl दिवाण-ए-खास में विशेष अमीर- उमराव, वजीर, अत्युच्च दरबारी अधिकारी ही रहते थेl विशेष शाही समारोह आयोजित करने के लिए यह दरबार लगता थाl इसमें भी महाराज नहीं पहुँच पाएl इसके बाद तीसरा एक और अतिविशिष्ट दरबार लगता था, अब रामसिंह शिवाजीराजे व संभाजीराजे को लेकर वहाँ पहुँचा l महाराज साथ में उपहार लाये थे-एक हजार मुहरें, दो हजार रूपये और पाँच हजार रूपये निसार यह देकर, अपने मुख्य उद्देश्य को साधने के लिए, न चाहते हुए भी महाराज ने तीन बार झुककर कुर्निसात किया l महान कार्य की पूर्ति के लिए किया गया यह नाटक थाl सामने औरंगजेब था परन्तु प्रणाम करते हुए महाराज ने पहला प्रणाम शिवशंकर को, दूसरा अपने पिता व तीसरा अपनी माता को किया होगा l
बक्षी आसदखान ने महाराज का परिचय करवाया परन्तु औरंगजेब ने उसपर कुछ भी प्रतिक्रिया नहीं दी, फिर महाराज एक बार अपमान का कड़वा घूंट पी गये!औरंगजेब ने महाराज को पाँच हजारी मनसबदारों में खड़े करवाने की व्यवस्था की थी l वहाँ रिवाज़ था तख्ताधीश के सामने कोई बैठता नहीं थाl महाराज के खड़े होने का स्थान बहुत पीछे था, उनके सामने अनेकानेक सरदार खड़े थेl महाराज को वहाँ से औरंगजेब दिखाई नहीं दे रहा था, ऐसा करके औरंगजेब ने महाराज को फिर एक बार अपमानित कियाl इसके बाद दरबारी रिवाज़ के अनुसार खिलत बाँटी गयी, यह खिलत शहजादा, वजीर व महाराज के आगे खड़े सरदार को दी गयीl औरंगजेब महाराज को कितना नीचा दिखाना चाहता था यह उसका प्रमाण थाl अब ज्वालामुखी का उद्रेग हुआl महाराज ने रामसिंह से पूछा, "हमसे भी आगे यह कौन खड़ा है?"सह्याद्री का मराठा शेर गुर्राया, दरबार देखता रह गया, स्वयं बादशाह के सामने इतनी तेज आवाज!जिस दरबार में बादशाह के सामने बोलना भी मना था, यह तो आदब को गहरा धक्का लगा थाl उस दरबार में अनेक राजपूत सरदार भी गर्दन नीचे करके खड़े थेl परन्तु महाराज यह सहन नहीं कर पाएl यह उनका अहंकार नहीं था, यह स्वाभिमान थाl रामसिंह दौड़कर आया व उसने जवाब दिया, यह है महाराजा जसवंतसिंह!" महाराज देखते रह गये, जसवंतसिंह, जिसको कोंढाणा दुर्ग के नीचे मराठों से हारकर भागना पड़ा थाl महाराज फिर गरजकर बोले, "क्या? जसवंतसिंह जैसे दरबारी के नीचे हमारा दर्जा? इसका मतलब? मेरे बहादुर सिपाहियों ने तो कई बार भागते हुए जसवंतसिंह की पीठ देखी है l"रामसिंह महाराज को शांत रहने के लिए कहने लगाl महाराज फिर गरजे, "क्या चल रहा है यह? आज मेरा नौ बरस का लड़का भी पाँच हजार का मनसबदार हैl मेरा सिपाही नेताजी पालकर भी उसी दर्जे पर है और मैं इतना बड़ा काम करके, इतनी दूर से दरबार तक आया हूँ, वह क्या इतने नीचे दर्जे का मनसबदार बनने के लिए?"
दरबार आश्चर्यचकित था,महाराज शेर है, उनकी हिम्मत बुलंद हैl जसवंतसिंह को गुस्सा आ रहा थाl औरंगजेब ने रामसिंह को बुलाकर कहा, "शिवाजी को पूछो, त्यौरियां क्यों चढ़ गयी है?"यह पूछकर औरंगजेब ने जता दिया, इतना क्रोधित होने जैसा कुछ भी नहीं हुआ है l
यह सुनकर महाराज और क्रोधित हुए वे रामसिंह से बोले,"तुम्हें मालूम है, तुम्हारे पिताजी को भी मालूम है, तुम्हारा बादशाह भी अच्छी तरह से जानता है कि मैं कौन हूँ!फिर भी जानबूझकर मुझे इतनी दूर, नीचे दर्जे में खड़ा किया गया हैl मैं तुम्हारी मनसब से नफ़रत करता हूँl मुझे खड़ा ही क्यों किया गया? मुझे खड़ा ही करना था, तो पहले मेरा दर्जा सोच लिया जाता l "
आवेग से अपनी बात कहकर महाराज कुछ दूरी पर जाकर खड़े हो गयेl रामसिंह फिरसे समझाने आया परन्तु महाराज अब समझने की स्थिति में नहीं थेl उनका मूल स्वभाव -सिंह जैसा स्वभाव अब उन्हें बगावत करने के लिए ललकार रहा थाl महाराज ने रामसिंह से कहा, आज मेरी मौत का दिन आया है, तुम मुझे मार डालो नहीं तो मैं आत्महत्या कर लेता हूँ!चाहे तो मेरा सिर उड़ा दो, लेकिन अब मैं बादशाह के सामने नहीं आऊंगा!"महाराज की यह प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी क्योंकि अपमान मौत जैसा ही दर्द देता है l निरन्तर
सन्दर्भ -- राजा शिवछत्रपति
लेखक -- महाराष्ट्र भूषण व पद्म विभूषण बाबासाहेब पुरंदरे
संकलन -- स्वयंसेवक एवं टोली
स्वराज्य स्थपना का 350 वां वर्ष श्रृंखला 50 = शिवाजी महाराज की प्रसिद्ध आगरा भेंट भाग तीन
इस घटना के बाद औरंगजेब ने मुल्तफतखान, अकीलखान एवं मुखलिसखान को शिवाजीराजे के पास खिलत लेकर भेजाl परन्तु अब महाराज ने खिलत ठुकरा दीl महाराज ने कहा, "इस खिलत को मैं स्वीकार नहीं करूंगा!बादशाह ने जानबुझकर मुझे जसवंतसिंह से नीचे का दर्जा दियाl मैं बादशाह की मनसब छोड़ देता हूँl अब मैं बादशाह का बंदा कभी नहीं बनूँगाl अब चाहे मुझे कैद कर लो या मार डालो, लेकिन अब मैं खिलत नहीं लूंगाl" महाराज बिजली जैसे कडककर बोलेl यह सुनकर औरंगजेब ने रामसिंह से कहा, "शिवाजी को तुम्हारे घर ले जाओ और समझाओl"
महाराज को नीचा दिखाने का एक भी अवसर औरंगजेब ने नहीं छोड़ाl वह मन का उदार था ही नहीं, उसके मन में सतत संशय बना रहता था, निष्ठावान सेवकों को भी वह विश्वासघात से मौत दिलाने में हिचकता नहीं था, वह धूर्त व कृतघ्न था,उसके दिमाग़ में धर्म के प्रति विकृत कल्पनाएं थीl मनुष्य की बुद्धि जिसकी कल्पना नहीं कर सकती ऐसे कारस्थान करने में वह अपनी बुद्धि व ऊर्जा नष्ट करता थाl यही काम उसने अभी किया,अगर थोडी चतुराई से, सावधानी से, सबूरी से काम लेता तो यह नौबत नहीं आतीl आज औरंगजेब ने एक सुअवसर खो दियाl वह अपने चेहरे पर महाराज के बारे में नाराजगी न बताने में सफल रहा परन्तु ऐसे कृत्य करके उसने सह्याद्री के शेर को ललकारने की भूल की थीl
रामसिंह ने महाराज को समझाने का भरसक प्रयत्न किया परन्तु अपमानित होकर अब महाराज उसकी बात समझने से ही इंकार कर रहे थेl महाराज ने प्रत्यक्ष देख लिया, इस दरबार में राजपूतों के मत का कोई मूल्य नहीं हैl उनका मन कहने लगा अब औरंगजेब कुछ भी कर सकता है, यहाँ से सलामती से निकलकर स्वराज्य में जाने के लिए प्रयास करने पड़ेंगेl
दरबार से वापस आने पर महाराज अपनी छावनी में लौट आये-दि.12 मई 1666
शाम को रामसिंह ने बल्लुशाह एवं मुंशी गिरधरलाल को महाराज के पास भेजाl बल्लुशाह ने महाराज को बताया, बादशाह को नाराज करना ठीक नहीं है, जो हुआ उसे आप भूल जाइयेl महाराज ने भी सोचा, अधिक खींचना ठीक नहीं होगा, उसके दुष्परिणाम हो सकते हैl महाराज ने जवाब दिया, "अच्छा, ठीक है, हम अपने भाई रामसिंह के साथ हमारे बेटे को दरबार में भेज देंगेl हम खुद भी कुछ दिनों बाद दरबार में आया करेंगेl
दि.13 मई 1666 को सुबह रामसिंह दरबार में गयाl औरंगजेब ने पूछा,
"शिवा दरबार में आ रहा है क्या?" रामसिंह ने बताया, "जी नहीं हुजूर! वे बीमार है, उन्हें बुखार चढ़ आया हैl " उसी दिन शाम को जब रामसिंह दरबार में गया, उसके साथ संभाजीराजे भी थेl निरन्तर
सन्दर्भ -- राजा शिवछत्रपति
लेखक -- महाराष्ट्र भूषण व पद्म विभूषण बाबासाहेब पुरंदरे
संकलन -- स्वयंसेवक एवं टीम
अशोक जी पोरवाल क्षेत्र स प्र प्र:
हिन्दवी स्वराज्य स्थापना का 350 वां वर्ष श्रृंखला 51 = शिवाजी महाराज की प्रसिद्ध आगरा भेंट भाग चार
औरंगजेब सोच रहा था, शिवाजी को कैदखाने में डालना है? किसी किले में ताउम्र रखा जाए? इसको मौत के घाट उतार दिया जाएँ? उसके स्वभाव व नीच प्रवृत्ति के अनुसार औरंगजेब ने तय किया शिवाजी का कत्ल किया जायेl औरंगजेब के पास रादअंदाजखान नामक एक क्रूर आदमी था जिसने अलवर के सनातनियों का कत्लेआम किया था l अभी वह आगरे के किले का किल्लेदार थाl राजकीय बंदियों को उसके हवाले किया जाता थाl औरंगजेब ने सिद्दी फुलादखान को फरमाया शिवाजी को रादअंदाजखान के हवाले कर दो, आगे क्या करना है यह बताने की आवश्यकता नहीं थीl यह खबर रामसिंह तक पहुँच गयीl सीधे औरंगजेब के पास जाने का साहस तो रामसिंह में नहीं थाl वह मीर बक्षी मुहम्मद अमिनखान के पास गया l यह मुगल सल्तनत का मुख्य बक्षी था इसलिए वह सीधे औरंगजेब से मिलने का अधिकार रखता थाl वह समझदार भी था तथा रामसिंह से स्नेह करता थाl रामसिंह ने अमिनखान को बताया कि उसके पिताजी ने शिवाजीराजे को वचन दिया है कि तुम्हारा बाल भी बाँका नहीं होगा तथा यह मेरी जिम्मेदारी है कि पिताजी के वचन को धक्का न लगे अन्यथा मुझपर बड़ा दाग लग जायेगाl
आगे रामसिंह ने यह भी कहा कि, "हजरत जहाँपनाह ने तय किया है कि शिवाजी का कत्ल करवाया जायेl लेकिन शिवाजी यहाँ तक पहुँचा है, वह मेरे पिताजी के वचन के आधार परl मेरे पिताजी ने शिवाजी को कहा है तुम्हारे साथ कुछ धोखा नहीं होगाl इसलिए मैं कहता हूँ, पहले मुझे मार डालोl मेरे मरने के बाद चाहे बादशाह उसे मार डाले या कुछ भी करें l "
रामसिंह के उदगार सुनकर अमीनखान तुरंत औरंगजेब के पास गया तथा उसका कहना औरंगजेब के कान पर डालाl औरंगजेब ने बहुत विचार किया एवं इस नतीजे पर पहुँचा कि दिये हुए वचन के लिए ये राजपूत बगावत करेंगे तथा यह एक नयी समस्या खड़ी हो जाएगीl अभी इन पिता-पुत्र को संभालना ठीक रहेगाl शिवाजी आगरा में है, बस सावधानी रखनी होगी कि शिवाजी आगरा में ही रहेl औरंगजेब धूर्त व कारस्थानी थाl उसने अमीनखान से कहा, "कुंवर रामसिंह से पूछो, क्या वह शिवा के बारे में जिम्मेदारी ले सकता है? शिवा अगर यहाँ से भाग गया अथवा उसने कुछ शरारत की, तो क्या रामसिंह इसके लिए जिम्मेदार रहेगा? इस बारे में रामसिंह माबदौलत को लिखकर दे देl" शिवाजीराजे के बारे में अभी तक जो अनुभव आये थे उसके कारण औरंगजेब को भी विश्वास नहीं था कि शिवाजी चुपचाप बैठा रहेगा इसलिए औरंगजेब ने रामसिंह को ही दुविधा में डालाl अमीनखान ने यह सन्देश रामसिंह को दियाl रामसिंह ऐसा लिखकर देने के लिए तैयार हुआ l इस प्रकार रामसिंह ने महाराज को अक्षरशः मौत से बचायाl इसी दिन रामसिंह महाराज से मिलने गया एवं यह सारा वृत्त रामसिंह ने महाराज के कान पर डालाl दूसरे दिन महाराज ने रामसिंह को बताया, "तुम लिखकर दे दो, तुम्हारी बात पर आँच नहीं आएगी इसका ध्यान मैं रखूँगाl" रामसिंह ने उस जमानत के कागजों पर हस्ताक्षर किये तथा कागज अमीनखान के सुपूर्द कियाl जमानत लिखकर मिलने पर बादशाह ने नई चाल चली, "कुंवर रामसिंह को हुक्म है कि वह शिवा को लेकर काबूल की ओर जाएँl काबूल की मुहिम पर तुम्हारे निसबत में माबदौलत शिवा को नामजद करते हैl रवाना होने के लिए अच्छा मुहूरत ढूंढ लिया जाये l"
औरंगजेब शिवाजीराजे का कत्ल करने की योजना बना रहा है, यह जानकारी रामसिंह को थीl अतः काबूल मुहिम पर जाने की बात सुनकर रामसिंह ने कहा, "अलीजाह, यही वक्त अच्छा मुहूरत हैl आलमपनाह ने बिलकुल सही वक्त पर हुक्म फरमाया हैl आप रुख़सत करें ताकि मैं फ़ौरन कूच कर सकूँ l" परन्तु औरंगजेब ने जवाब दिया, "नहीं अभी नहीं, छः - सात दिन के बाद का अच्छा मुहूरत देखोl मुहिम के लिए फ़ौज में शामिल होने के लिए तुम्हारे राजपूत सैनिकों को हुक्म दोl"
इसपर दरबार में उपस्थित रादअंदाज खान ने रामसिंह को बताया, "कुंवरसाहब, आपकी फ़ौज की अगवानी करने का मुझे हुक्म हुआ हैl "काबूल मुहिम की योजना के पीछे रास्ते में शिवाजीराजे का कत्ल करने का इरादा रामसिंह समझ गया l निरन्तर
सन्दर्भ -- राजा शिवछत्रपति
लेखक -- महाराष्ट्र भूषण व पद्म विभूषण बाबासाहेब पुरंदरे
संकलन -- स्वयंसेवक एवं टीम
स्वराज्य स्थापना का 350 वां वर्ष श्रृंखला 52 = शिवाजी महाराज की प्रसिद्ध आगरा भेंट भाग पांच
अब सम्पूर्ण आगरा शहर में दो बातों की चर्चा थी, एक तो महाराज के हिम्मत की एवं दूसरी कि महाराज कह रहे थे आगरा भेजने से पहले मिर्जा राजा ने वचन दिया था कि आपसे धोखा नहीं होगाl यह चर्चा गुप्तचरो से औरंगजेब के कान पर आ रही थीl अब औरंगजेब ने एक पत्र मिर्जा राजा को भेजा तथा पूछा कि यहाँ भेजने के पहले शिवाजी को तुमने क्या वचन दिया था? अब मिर्जा राजा दक्षिण में, औरंगजेब उत्तर में तो पत्र का उत्तर आने में एक से डेढ़ महिना लगाl अतः औरंगजेब ने काबूल मुहिम को थोड़ा आगे बढ़ा दिया l
महाराज ने प्रयत्न किया कि औरंगजेब उन्हें महाराष्ट्र जाने दे, वजीरों द्वारा आवेदन भेजा पर वह सब बेअसर रहाl दि.29 मई 1666 को महाराज ने एक और प्रयत्न किया, मीर बक्षी अमिनखान को एक आवेदन दिया-"बादशाह अगर मुझे मेरे सारे दुर्ग वापस देगा तो उसके बदले मैं बादशाह को दो करोड रूपये देने के लिए तैयार हूँl मुझे घर जाने की अनुमति दी जाएँ, मैं मेरे बेटे को आगरा में छोड़कर जाने के लिए तैयार हूँl बादशाह पर भरोसा करके मैं यहाँ आया हूँ, मेरी निष्ठा अभेद है, मैं शपथ लेने के लिए भी तैयार हूँl बादशाह जहाँ भी मुहिम की योजना बनाएँगे मैं वहाँ जाने के लिए तैयार हूँl अभी बीजापुर मुहिम चल रही है उसमें शामिल होने की अनुमति मुझे मिल जाएँ तो मैं अपने प्राण देकर भी मुहिम सफल कर मेरी सेवा बादशाह के चरणों में अर्पित करूँगा l
महाराज विवेक से काम ले रहे थे परन्तु औरंगजेब धूर्त था, इस पत्र के पीछे क्या आशय है यह समझने जितना वह भी बुध्दिमान था, औरंगजेब समझ गया शिवाजी महाराष्ट्र जाना चाहता हैl अर्थात अपने हाथ से छूटने का प्रयत्न कर रहा हैl औरंगजेब सचेत हो गयाl महाराज का आवेदन पढ़कर उसने कहा, "माबदौलत ने शिवा से बिलकुल अच्छा बिना कड़ाई का बर्ताव किया, उसका नतीजा यह हुआ कि शिवा गुस्ताखी करके उसका फायदा उठा रहा हैl घर वापस जाने की इजाजत उसे कैसे देंगे? उसे कहो इसके बाद तेरा किसीसे भी मिलना- जुलना बंद कर दिया गया हैl रामसिंह के घर जाने के लिए भी मनाही हैl " यह फरमान ही थाl औरंगजेब इतना करके रुका नहींl उसने फुलादखान कोतवाल को बुलाकर बताया, "शिवा जहाँ रुका है, उस स्थान को घेर लो, चारों ओर पहरेदार बिठाओ और तुम खुद होशियार रहनाl " इस पहरे में पाँच हजार की फ़ौज थी एवं तोपे भी तैनात की गयी थीl - अर्थात महाराज को कैद कर लिया गया l
यह खबर राजगढ़ पर भी पहुँचीl माँसाहेब की हालत कैसे हुई होगी? महाराज को भी चिंता ने घेर लियाl रामसिंह भी चिंता कर रहा था-सभी की स्थिति "सजीवं दहते चिंता" जैसी थीl रामसिंह ने महाराज के निवासस्थान व शय्या के आसपास अपने भरोसे के लोगों को पहरे पर बिठाया क्योंकि रामसिंह जानता था कि अभी केवल बंदी बनाया गया है परन्तु औरंगजेब का अंतिम उद्देश्य महाराज को समाप्त करना ही हैl अर्जुनजी व सुखसिंह नाथावत एवं ओर कुछ राजपूत सैनिक बाहर की तरफ तथा तेजसिंह कछवाहा महाराज की शय्या के पास पहरे पर थेl फुलादखान को इसका स्पष्टीकरण रामसिंह ने दिया, "मैंने शिवाजी के बारे में बादशाह को लिखित जमानत दी हैl अगर शिवाजी भाग गया अथवा उसने आत्महत्या कर ली तो बादशाह को मुझे जवाब देना पड़ेगा, इसलिए यह व्यवस्था की हैl "- फुलादखान मान गयाl इसके मध्य मिर्जा राजा ने औरंगजेब के पत्र का जवाब भेजा, उसमें केवल पुरंदर करार के पाँच बिन्दु लिखकर भेजेl
मिर्जा राजा के पास महाराज को सेना की नजरकैद में रखा है यह खबर पहुँच गयीl उन्होंने तुरंत रामसिंह के पास सूचना भेजी,"मेरे द्वारा दिया गया वचन एक राजपूत का वचन है उसको धक्का न लगे ऐसी सावधानी तुम्हें बरतनी होगीl"औरंगजेब को भी एक पत्र भेजा उसका आशय ऐसा था कि शिवाजी को छोड़ देना ही अपने दख्खन के राज्यविस्तार के लिए लाभकारी होगाl परन्तु औरंगजेब ऐसा कुछ भी नहीं करनेवाला था l
महाराज के सिर पर मृत्यु की तलवार लटक रही थीl घटना के प्रारम्भ में जैसा दुःख एवं आवेगा था वैसा अब नहीं थाl अब महाराज के मन में, उसका स्थान गंभीरता एवं विवेक ने ले लिया थाl महाराज रामसिंह, तेजसिंह व फुलादखान से बातें करते थेl अत्यंत सावधानी से बात करते थेl रामसिंह की फ़ौज का सरदार महासिंह शेखावत इस बारे में लिखता है कि महाराज के प्रश्नोत्तर अचूक हुआ करते थे, वे अत्यंत बुद्धिमान व दूरदर्शी राजपूत हैl आगरा आकर अब तीन हफ्ते बीत गयेl महाराज के साथी तुळजाभवानी से प्रार्थना कर रहे थे इस महायवन ने द्वार बंद किया है, माते आकर सहायता करों - "बया दार उघड!" निरन्तर
सन्दर्भ पुस्तक -- राजा शिवछत्रपति
लेखक -- महाराष्ट्र भूषण व पद्म विभूषण बाबासाहेब पुरंदरे
संकलन -- स्वयंसेवक एवं टीम:
हिन्दवी स्वराज्य स्थापना का 350 वां वर्ष श्रृंखला 53 = शिवाजी महाराज की प्रसिद्ध आगरा भेंट भाग छः
"बया दार उघड" अर्थात दरवाजा खोल माँ, हे भवानी मार्ग दिखा, यह पुकार सुनकर माँ ने मार्ग दिखायाl
फुलादखान के द्वारा महाराज ने औरंगजेब के पास दि.07 जून 1666 को एक अर्जी भेजीl महाराज कहते है, हमारे साथ हमारी जो फ़ौज आयी है उसे हम घर वापस भेजना चाहते है, तो आप इजाजत देकर यह मुल्क छोड़ने के लिए आज्ञापत्र प्रदान करेंl इसमें गहरा आशय छुपा हुआ था, अपने साथियों को इस कैद से मुक्त करने का रास्ता था यहl औरंगजेब ने सोचा अच्छा है, साथ में फ़ौज नहीं रहेगी तो शिवाजी को समाप्त करना आसान होगाl परन्तु औरंगजेब ने ये आज्ञापत्र दि.25 जुलाई 1666 को दियेl अब दूसरा महत्वपूर्ण कार्य था, रामसिंह को जमानत से मुक्त करवाना क्योंकि महाराज अनैतिकता के मार्ग से जाना नहीं चाहते थेl नैतिक अधिष्ठान के कारण महाराज को उस नजरकैद से अधिक रामसिंह के जमानत का बंधन लग रहा था जो रामसिंह ने औरंगजेब को लिखकर दी थीl महाराज ने एक और अर्जी औरंगजेब के पास भेजी, मेरा निवासस्थान कही दूसरी जगह हो, परन्तु यह अर्जी अमान्य हुईl फिर महाराज ने रामसिंह से कहा, "बादशाह मेरे साथ जो करना चाहता है वह करें, तुम अपनी जमानत वापस लेकर जिम्मेदारी से मुक्त हो जानाl "परन्तु रामसिंह ने वचन के खातिर ऐसा करने से मना किया l
अब औरंगजेब के दिमाग़ में दख्खन मुहिम का नेतृत्व करने का विचार आयाl यह खबर सुनकर मिर्जा राजा ने औरंगजेब को एक पत्र भेजा,"पहले पत्र लिखकर मैंने शिवाजी को दख्खन जाने दो ऐसा सुझाव दिया था परन्तु अब यहाँ स्थिति बदल गयी हैl अब शिवाजी को आगरा में बंदी बनाकर रखना उचित होगाl परन्तु यह करते हुए सावधानी बरतने की आवश्यकता है, अन्यथा उसके प्राण संकट में है यह खबर अगर फैल गयी तो महाराष्ट्र के अमंलदार आदिलशाही में सम्मिलित होकर हमें दिक्कत देंगे l "
मिर्जा राजा ने एक पत्र रामसिंह को भी भेजा, "शिवाजीराजे को तुम्हारे कब्जे में देकर बादशाह अगर दख्खन आने की योजना बनाते है तो उनसे कहना कि मुझे भी अपने साथ मुहिम पर ले चलो ताकि शिवाजीराजे की जिम्मेदारी से तुम मुक्त हो जाओगेl"
अब 16 जून 1666 को महाराज ने एक अर्जी औरंगजेब के पास भेजी, "मुझे काशी जाने की अनुमति दे दी जाएँl वहाँ मैं संन्यास ग्रहण करुँगा, सर्वस्व का त्याग कर मुझे संन्यासी बनना है l "
औरंगजेब ने जवाब भेजा, "शिवा को जरूर फकीर बनना चाहिएl परन्तु फकीर बनकर उसे इलाहबाद के किले में रहना पड़ेगाl वहाँ हमारा सुबेदर बहादुरखान शिवा का ध्यान रखेगाl" सारी दुनिया जानती थी कि औरंगजेब इलाहबाद के किले में राजबंदियों को कैद करके रखता था, उनपर अत्याचार करता था व उन्हें मार डालता था l
अपनी अर्जी के साथ महाराज ने एक और अर्जी दरबार में लगायी थी, मेरे पास जितने भी दुर्ग है वे सारे दुर्ग मैं बादशाह को देने के लिए तैयार हूँ परन्तु उनका कब्जा देने के लिए मुझे घर जाने की अनुमति मिलेl" इसपर औरंगजेब ने एक सवाल किया था, दुर्गों का कब्जा देने के लिए शिवा को घर जाने की क्या आवश्यकता है? शिवा अपने लोगों को यहाँ से पत्र भेजे एवं उसके वहाँ के लोग दुर्गों का कब्जा हमें सौप देंगे l
इस पत्राचार में एक माह गुजर गयाl इस दरमियान रामसिंह के साथ संभाजीराजे प्रतिदिन दरबार जा रहे थेl इसके मध्य रामसिंह औरंगजेब से सतत निवेदन कर रहा था कि शिवाजीराजे के लिए उसने जो जमानत लिखकर दी है उससे उसे मुक्त किया जाएँl एक दिन औरंगजेब ने ऐसा किया, जिससे रामसिंह से अधिक महाराज खुश थे l
इस अवधि में अपना काम निकलवाने के लिए महाराज ने बड़े अधिकारीयों को बहुत रकम बाँटी इस कारण महाराज आते समय जो राशि साथ में लाये थे वह अब बहुत कम बची थी एवं महाराज का काम हुआ ही नहीं यह बात अलगl अब महाराज ने रामसिंह से राशि माँगी तथा उसको बताया दख्खन में मिर्जा राजा के पास उतनी राशि राजगढ़ से भेजी जाएगीl ऐसा हुआ भी, रामसिंह ने महाराज को छियासठ हजार रूपये दिये एवं राजगढ़ से उतनी रकम मिर्जा राजा के पास पहुँचा दी गयी l निरन्तर
सन्दर्भ -- राजा शिवछत्रपति
लेखक -- महाराष्ट्र भूषण व पद्म विभूषण बाबासाहेब पुरंदरे
संकलन -- स्वयंसेवक एवं टीम
[अशोक जी पोरवाल क्षेत्र स प्र प्र:
हिन्दवी स्वराज्य स्थापना का 350 वां वर्ष श्रृंखला 54 = शिवाजी महाराज के सहयोगी हिरोजी फर्जन्द एवं मदारी मेहतरभाग एक
औरंगजेब ऐसा जता रहा था कि उसने करस्थान करने का विचार छोड दिया हैl परन्तु वह अतिभयंकर योजना पर अमल करनेवाला थाl आगरा में फ़िदाई हुसेन खान के हवेली का निर्माण कार्य चल रहा था, इसका काम पूर्ण होने पर शिवाजी को वहाँ ले जाकर मारकर उसी हवेली में दफनाने का विचार औरंगजेब ने किया था l
महाराज के साथी, रघुनाथपंत व त्रम्बकपंत भी अपनी योजना पर कार्य कर रहे थेl महाराज नजरकैद होने के कारण कही जा नहीं सकते थे परन्तु अपने साथियों के सहयोग से उन्होंने आगरा के बड़े अमीर-उमरावों से अच्छे सम्बन्ध स्थापित किये थेl महाराज व्यापारियों से कीमती सामान खरीदकर उनसे भी आत्मीयता के सम्बन्ध स्थापित कर रहे थेl
नजरकैद से निकलने के सारे मार्ग जब बंद हो गये तो महाराज ने अपने स्वभाव के अनुसार सारे छोटे-छोटे बिंदुओं पर विचार कर विवेक से व बुद्धिचातुर्य से एक योजना बनायीl अगर यह योजना सफल रही तो अतिअद्भुत परन्तु एक भी गलती हुई तो सीधी मौतl असंभव नहीं परन्तु कठिन तो था यह दिव्य!हमेशा की तरह योजना की सफलता अभी जो साथी उनके साथ थे प्रत्येक की दक्षता, चतुराई, धैर्य व निष्ठा पर निर्भर थीl किसी को भी जरासा भी संदेह नहीं होगा इस प्रकार से योजना पर अमल होनेवाला थाl यही महाराज की विशेषता थी कि संकट के समय भी वह गंभीरता व दूरदर्शिता से सभी बिंदुओं को जाँच - परख लेते थे l
महाराज का स्वास्थ्य खराब हुआ, उनका पेट दुख रहा थाl उनके साथी दवा व इलाज के लिए चिंता करने लगे, शहर के वैद्य आये तथा इलाज शुरू हुआl यह खबर रामसिंह,वजीर, फुलादखान, मीरबक्षी एवं धीरे-धीरे सभी सरदारों तक पहुँची तथा स्वाभाविक रूप से औरंगजेब के कान पर भी गयीl दो दिन बाद बीमारी ने जोर पकड़ा, साथी भी चिंताग्रस्त थे, यह खबर पूरे शहर में फैल गयीl फुलादखान समय-समय पर महाराज के कक्ष में झाँककर देखता थाl वहाँ सतत एक सोलह- सत्रह साल का लड़का महाराज की सेवा कर रहा था, उसका नाम था मदारी मेहतर, यह लड़का मुस्लिम था परन्तु महाराज से बहुत स्नेह करता थाl मदारी बुद्धिमान व निष्ठावान था l
दवा चल रही थी परन्तु तबियत को कोई अधिक लाभ नहीं हो रहा था l महाराज ने विचार किया दवा के साथ दुवा की भी आवश्यकता हैl ब्राह्मण, फकीर, संन्यासी, गरीब इन सबके आशीर्वाद से शायद कुछ अंतर आ सकता है, शीघ्र कुछ लाभ मिलेगाl अब क्या किया जाएँ? विचार किया कुछ दान-धर्म किया जाएँ, इनको मेवा-मिठाई खिलायी जाएँ तो दुवा मिलेगीl चरणबद्ध योजना की अगली कडी थी, बड़े-बड़े पिटारों से मेवा- मिठाई इन सबको भेजनाl पिटारें बनवाये गये, मिठाई बनवाने वालों से बात हुई क्योंकि स्वास्थ्य ठीक होने तक यह काम निरंतर चलनेवाला था l इसमें रामसिंह ने भी सहायता कीl बड़े पिटारें, मोटी रस्सी से बास पर झूले जैसे लटकाकर मिठाई भेजी जाने लगीl फुलादखान ने पूछताछ की, कारण मालूम होने पर उसे हरकत लेने की आवश्यकता भी महसूस नहीं हुईl दुवा के लिए दान दिया जा रहा है इसमें संदेह करने जैसा कुछ भी नहीं थाl इसके पीछे की योजना जब धूर्त औरंगजेब को भी ध्यान में नहीं आयी, तो फुलादखान की बुद्धि का तो क्या पूछना? काम आसान हुआ, प्रतिबन्ध नहीं था, फुलादखान केवल दक्षता से उन्हें बाहर भेजते समय खोलकर देखता थाl पिटारों की लम्बाई, चौडाई, ऊंचाई महाराज ने एक बार देख ली, नाप एकदम सही थाl यह पिटारें भेजने का सिलसिला प्रारम्भ हुआ l
महाराज की अर्जी के अनुसार जब तक दरबार से आज्ञापत्र प्राप्त नहीं होते तब तक आगे के चरण पर काम करना महाराज के लिए आसान नहीं थाl अंततः दि.25 जुलाई 1666 को आज्ञापत्र मिलने पर महाराज ने कुछ साथियों को दख्खन की ओर रवाना कियाl ये सब बहुत बेमन से महाराज को साथ लिए बिना रवाना हुएl अपने साथ आये कविन्द्र परमानन्द नेवासकर का महाराज ने सम्मान कियाl उन्हें कुछ धन,एक हाथी,एक हथिनी,दो अश्व,वस्त्रलंकार,दो गठरीयाँ भारी कपड़ा,चालीस सिपाही उपहारस्वरुप देने जैसा प्रदर्शन (नाटक) किया एवं उन्हें दरबारी आज्ञापत्र के साथ रवाना कियाl बड़ी चतुराई से महाराज ने अपना सामान व साथियों को दख्खन की ओर भेज दिया l
राजगढ़ से आते समय महाराज अपने साथ कुछ जड़जवाहर भी लाये थे,यह तो स्वराज्य का धन था,उसे आगरा दरबार के लिए न छोड़ने का प्रण महाराज ने लियाl इसके लिए महाराज ने आगरा के प्रसिद्ध साहूकार मूलचंद से बात कीl इनका साहूकारी का कारोबार दक्षिण में भी चलता था,इस काम के लिए उनके मुनीम तथा अन्य लोग महाराष्ट्र आते- जाते रहते थेl सामान की सुरक्षा के लिए कुछ अन्य लोग भी रहते थेl महाराज साथ में होन,मुहरें,मोती लाये थे यह सामान महाराज ने मूलचंद के घर पहुँचाया व उसे इस सामान को राजगढ़ पहुँचाने के लिए कहाl ऐसी सेवाओं के लिए साहूकार दलाली लेते थे l
महाराज के काम योजना के अनुसार चल रहे थेl औरंगजेब फ़िदाई हुसेन के हवेली का निर्माण पूर्ण होने की राह देख रहा थाl फिर उसे मुगल सल्तनत के जड़ों पर प्रहार करनेवाले शिवाजी का खात्मा वही ले जाकर करना थाl प्रतिदिन पिटारों की जाँच करते-करते फुलादखान को विश्वास हो गया था कि इसमें मिठाई ही रखी होती हैl इस तरफ से खान व उसके सिपाही निश्चिन्त हो गये थेl परन्तु पहरा कडक था,उसमें कोई ढीलाई नहीं थी l
सन्दर्भ -- राजा शिवछत्रपति
लेखक -- महाराष्ट्र भूषण व पद्म विभूषण बाबासाहेब पुरंदरे
संकलन -- स्वयंसेवक एवं टीम
अशोक जी पोरवाल क्षेत्र स प्र प्र:
हिन्दवी स्वराज्य स्थापना का 350 वां वर्ष श्रृंखला 55 = शिवाजी महाराज के सहयोगी हिरोजी फर्जन्द व मदारी मेहतरभाग दो
दवा चल रही थी, दुवा के लिए मेवा- मिठाई बँट रही थी परन्तु तबियत ठीक होने का नाम नहीं ले रही थी l दिन-ब-दिन तकलीफ बढ़ रही थीl इस दरमियान एक दिन निराजीपंत व दत्ताजीपंत कक्ष से बाहर गये तथा वापस आये ही नहींl महाराज की तबियत ज्यादा खराब होने से लोगों का आना-जाना कम हो गया थाl बीच में फुलादखान जरूर तबियत का हाल जानने आता थाl मदारी मेहतर बैठकर महाराज के पैर दबाता थाl वैसे ही आज भी बैठा था l महाराज की तबियत को लेकर सभी बहुत चिंतित थेl हिरोजी फर्जन्द पास में ही बैठे थेl महाराज ने अपने हाथ का सोने का कडा, हिरोजी के हाथ में पहनायाl आज दो पिटारें खाली थे एवं बाकी सब मिठाई से भरे थेl महाराज अपनी शय्या से उठे तथा वहाँ हिरोजी चद्दर ओढकर सो गये, कडा पहना हुआ हाथ चद्दर से बाहर रखना नहीं भूलेl मदारी अब हिरोजी के पैर दबा रहा थाl एक खाली पिटारे में महाराज व दूसरे में संभाजीराजे बैठेl प्रतिदिन की तरह पिटारें बाहर आये, सिपाहियों ने पिटारें जाँचना शुरू किया, सबके ह्रदयों की धड़कन तेज व जबान पर माँ तुळजाभवानी का नाम ऐसी स्थिति थी क्योंकि पकड़े गये तो सीधे मौतl साथियों को अपने प्राणों की परवाह नहीं थी परन्तु महाराज की सुरक्षा के लिए वे चिंतित थेl पहरेदारों ने कहा, "जाने दो" सबको ऐसा लगा जैसे तुळजाभवानी, खंडोबा, ज्योतिबा, अष्टविनायक, ग्यारह हनुमान सब एकसाथ आये महाराज की योजना को सफल बनाकर उनको सुरक्षित बाहर निकलने के लिए l
दि.17 अगस्त 1666 को औरंगजेब नामक मगरमच्छ के मुँह से, फुलादखान के पहरे से, ताला न तोडते हुए, तोपों के सामने से महाराष्ट्र के सह्याद्री का शेर एवं उसका छावा सहीसलामत निकल गये l
यह प्रसंग याद दिलाता है जन्माष्टमी की, वसुदेव ने भी कृष्ण को, कंस के कडे पहरे से निकालकर, एक टोकरी में रखकर मथुरा पहुँचाया था l
आगरा शहर के बाहर कहाँ मिलना है यह तय थाl वहाँ तक पिटारेवाले पिटारें लेकर आ गयेl योजना के अनुसार उस स्थान पर निराजीपंत, दत्ताजीपंत, राघो मित्र अश्व लेकर खड़े थे-यह सायंकाल का समय था l
परन्तु अब प्रत्येक क्षण महत्वपूर्ण था कारण अब खबर फैल जाएगी व शिवाजीराजे व संभाजीराजे को पकड़ने के लिए फौज रवाना होगीl अब जल्द से जल्द महाराष्ट्र पहुँचना था l
रात्रि का प्रहर प्रारम्भ हुआl योजना के अनुसार संभाजीराजे को मोरोपंत पिंगळे के जिजाजी मथुरा में रहते थे उनके पास छोडना थाl उनके दोनों भाई काशीपंत व विसाजीपंत अपनी माँ के साथ वहाँ रहते थेl महाराज ने संभाजीराजे को उनके सुपूर्द किया तथा निवेदन किया कि राजगढ़ पहुँचने के बाद, परिस्थिति देखकर, जब शत्रु भी गाफिल हो जाएगा तब पत्र भेजूंगा, पत्र मिलने पर आप संभाजी को लेकर राजगढ़ आनाl स्वराज्य के लिए पंत यह कठिन कार्य जिसमें बहुत खतरा था,धैर्य व सानंद करने के लिए तैयार हुए एवं महाराज को चिंता न करने का तथा जी जान से संभाजीराजे की देखभाल का वचन दिया l
आगे की यात्रा के लिए महाराज व उनके साथियों ने संन्यासी भेष धारण कियाl भगवे वस्त्र, नामजाप माला, भिक्षा हेतु झोला, पानी के लिए कमंडल ऐसी वेशभूषा थीl दल ने मथुरा से सीधे नरवर की ओर प्रस्थान कियाl दूरी बहुत अधिक थी व जितना समय बीतता जायेगा उतना पीछे से शत्रु नजदीक आता जायेगा इसलिए शीघ्र गति से यात्रा करना आवश्यक था l
आगरा में महाराज की शय्या पर हिरोजी सोया था एवं मदारी उसके पैर दबा रहा था, यहाँ भी स्थिति घातक थीl कहाँ से मिले महाराज को ऐसे निष्ठावान लोग जो अपने प्राणों की बाजी लगाने के लिए तत्पर थे!कहते है ना स्वराज्य निर्माण यह ईश्वरी कार्य था अतः ईश्वर तो सहयोग करेंगे ही, ऐसे लोग इसका प्रमाण था l
रात्रि का प्रहर था, मदारी ने बिस्तर पर लोड-तकिये रखकर उसपर चादर बिछा दी तथा कोई व्यक्ति सोया है ऐसा आभास निर्माण कियाl इसके बाद हिरोजी व मदारी कक्ष से बाहर आयेl पहरेदार ने पूछताछ की, हिरोजी ने जवाब दिया, "महाराज के सिर में दर्द है, हम दवा लाने जा रहे हैं, किसीको अंदर मत जाने देनाl"दोनों गये परन्तु वापस नहीं आयेl पूरी रात "महाराज" सो रहे थेl पहरा चल रहा था, तोपे खड़ी थी, फुलादखान अपना काम ईमानदारी से कर रहा थाl परन्तु कक्ष खाली था!गरुड उड़ गया!
सन्दर्भ -- राजा शिवछत्रपति
लेखक -- महाराष्ट्र भूषण व पद्म विभूषण बाबासाहेब पुरंदरे
संकलन -- स्वयंसेवक एवं टीम
हिन्दवी स्वराज्य स्थापना का 350 वां वर्ष श्रृंखला 56 = प्रसिद्ध आगरा भेंट एवं शिवाजी महाराज के सहयोगी भाग एक
दि.18 अगस्त 1666 - फ़िदाईखान के नयी हवेली में शिवा को ले जाने का दिन आयाl औरंगजेब अपनी बुद्धि पर इतरा रहा था कि कैसे कारस्थान रचा है मैंने, दख्खन के उस शिवा का खात्मा होगाl सुबह का कुछ समय किसी ने ध्यान नहीं दिया परन्तु जैसे समय बीतता गया, अंदर कुछ हलचल नहीं, यह बात पहरेदारों ने फुलादखान को बतायीl फुलादखान कक्ष में आया, आवाज लगायी पर 'महाराज' ने उसका उत्तर नहीं दियाl फुलादखान ने चद्दर हटायी एवं बस उसका बेहोश होना ही बाकी थाl चद्दर के नीचे लोड तथा तकिये थेl उसे समझ में नहीं आ रहा था कि शिवाजी गया कहाँ? धरती में समा गया कि आसमान में उड़ गया? इतने कडे पहरे के बीच में से कहाँ जा सकता है और कैसे? फुलादखान ने यह खबर रामसिंह को दीl रामसिंह तुरंत बादशाह के पास गया व गर्दन नीचे करके खड़ा हुआ, उसके चेहरे पर उदासी छायी हुई थीl औरंगजेब ने पूछा, "क्या हुआ?" रामसिंह ने शिवाजी के भाग जाने की खबर सुनाईl पीछे-पीछे फुलादखान भी आयाl औरंगजेब हैरान था,हताश था, शिकार हाथ से निकल गया, दरवाजे तक आया शत्रु जिसको मैं समाप्त करना चाहता था वह भाग गया!पाँच हजार की फौज एवं तोपों के सामने से कैसे भाग सकता है? कौन गद्दार है जिसने ऐसा होने दियाl फुलाद बताने लगा, "मेरी कोई गलती नहीं है, पहरा कडा था l"
औरंगजेब ने तुरंत हुक्म फरमाया, आगरा शहर को सैनिकों से घेर लो, कोई रास्ता ऐसा मत छोडो जहाँ से कोई शहर से बाहर जा सकेंl फुलादखान भी जी जान से शिवाजी को ढूंढ़ने निकल पड़ाl औरंगजेब ने रामसिंह को धौलपुर की तरफ भेजाl आगरा से दक्षिण की ओर जानेवाले घाट, नदियाँ, चौकीयां सब ओर सैनिक भेजे गयेl औरंगजेब ने अपने महल के चारों ओर पहरे लगवा दिये, न जाने शिवा महल में आकर मेरे साथ दग़ा करेगाl औरंगजेब के क्रोध का ठिकाना नहीं थाl फुलाद इसका सारा दोष रामसिंह के माथे मढ़ने का प्रयास करने लगा l
महाराज नरवर से महाराष्ट्र की ओर आये परन्तु कौनसे मार्ग से यह इतिहास को ज्ञात नहीं हैl संन्यासी के भेस में राजगढ़ पहुँचे - दि.12 सितम्बर 1666, संन्यासियों ने माँसाहेब से मिलने की इच्छा जतायीl ऐसे अपरिचितों को सीधे किले में प्रवेश कैसे दिया जाएँ? परन्तु माँसाहेब ने विचार किया संन्यासी अर्थात ईश्वर का स्वरुप होते हैं, इनके भी आशीर्वाद मिलेंगेl सभी अंदर आये, चिंता के कारण माँसाहेब थकी हुई थी, वे भी बाहर आयी एवं एक संन्यासी आगे आया व उसने अपना मस्तक माँसाहेब के पैरों पर रखाl अपने शिवबा को अपने सामने देखकर उस माँ के शब्दों को विराम लग गया एवं अश्रु बह निकलेl अचानक महाराज को सामने पाकर गढ़ पर आनंद छा गयाl अचानक आने का कारण यह था कि यह खबर गुप्त थी कारण समय अच्छा नहीं थाl
सन्दर्भ -- राजा शिवछत्रपति
लेखक -- महाराष्ट्र भूषण व पद्म विभूषण बाबासाहेब पुरंदरे
संकलन -- स्वयंसेवक एवं टीम
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