हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना का 350 वां वर्ष श्रृंखला 42 = शिवाजी महाराज के सहयोगी - मुरारबाजी देशपांडे भाग तीन
कारतलबखान, नामदारखान, शाइस्ताखान, इनायतखान, जसवंतसिंह राठौड़ दिल्ली दरबार के इन सरदारों को शिवाजी महाराज ने परास्त कियाl इन सबकी हार से औरंगजेब बौखला गयाl सम्पूर्ण परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए औरंगजेब दिल्ली से महाराष्ट्र आने के लिए कभी तैयार नहीं थाl वह दिल्ली में बैठकर सब चाले चलता थाl
औरंगजेब को अब याद आये मिर्जा राजा जयसिंह!कछवाह राजपूत कुल का वीर सेनानी, प्रचंड अनुभव, कुशाग्र बुद्धि, अपार शौर्य का धनी था यह सेनानीl स्वयं के उम्र के आठवे साल में वह जहांगीर की फ़ौज में शामिल हुआ थाl
विगत 47 सालों से निष्ठा से मुगल सल्तनत की चाकरी कर रहा थाl इस निष्ठा से ही उसकी तलवार मध्य एशिया के बल्ख़ से दक्षिण हिंदुस्तान के बीजापुर तक व पूर्व में मोंघिर से पश्चिम में कंधार तक शौर्य दिखा चुकी थीl परन्तु राजपूत होते हुए भी सारी निष्ठा मुगलों के लिए थी-जो मुगलों का शत्रु वह मेरा शत्रुl ऐसे वीर योद्धाओं के बल पर ही मुगल सल्तनत जीवित थीl मिर्जा राजा फ़ारसी, उर्दू, तुर्की, डिंगल भाषाओं के ज्ञानी थेl मीठा बोलते एवं हँसते थेl इतिहास कहता है, दिल्ली के तख़्त के लिए औरंगजेब तथा उसका भाई दाराशिकोह दोनों लालायित थेl उस समय मिर्जा राजा ने औरंगजेब की सहायता की तथा बादशाही का ताज़ औरंगजेब के सर पर चढ़ा यदि उस समय मिर्जा राजा दारा की सहायता करते तो दारा बादशाह बनताl इससे सिद्ध होता है कि मिर्जा राजा की भुजाओं में वह बल था जो दिल्ली के तख़्त का बादशाह तय करता थाl प्रश्न उठता है तो क्या मिर्जा राजा बादशाह नहीं बन सकते थे? उनके लिए यह असंभव नहीं था परन्तु गलत लोगों के साथ निष्ठा थी एवं उसके कारण बादशाह की कृपा, धन -दौलत, महल, हाथी, घोड़े सब था उनके पास तो स्वतंत्रता की क्या आवश्यकता?
मिर्जा राजा का जन्म जयपुर के सूर्यवंशी राजघराने में अंबर में हुआ थाl वे अयोध्यापति प्रभु श्रीरामचंद्रजी के वंशज थेl कछवाह अर्थात कुश का वंशl मिर्जा राजा अलौकिक आभा एवं प्रतिभा के धनी थेl उनके दादाजी ने अपनी बहन अकबर को दी तथा पिताजी ने अपनी बहन जहांगीर को दीl इस रोटी-बेटी के रिश्ते के कारण वे मुगलों के रिश्तेदार थे, इसलिए तलवार का शौर्य भी मुगल सल्तनत के लिए था l
औरंगजेब ने मिर्जा राजा तथा उसके साथ पठान दिलेरखान को दक्खन पर आक्रमण के लिए भेजा-दि.16 अक्टूबर 1664 अनेकानेक सरदार, बड़ी फ़ौज, युद्धसामग्री देकर उन्हें रवाना किया गयाl मिर्जा राजा जानते थे साथ में दिलेरखान को क्यों दिया गया है? भले हिन्दू अपनी बेटियाँ उनको दे, उनके लिए कितना भी त्याग एवं समर्पण करें परन्तु मुगल उन्हें अपना नहीं मानते थेl अब मिर्जा राजा उस स्तर पर पहुँच गये थे जहाँ मन मानने लगता है-दिल्लीश्वरो वा जगदीश्वरो वा!
मिर्जा राजा तथा दिलेरखान मिलकर योजना बनाने लगेl दिलेरखान का मानना था शिवाजी की सारी शक्ति पहाड़ी दुर्गों में है, हम दुर्ग जीत लेंगे तो शिवाजी जायेगा कहाँ? मिर्जाराजे को दिलेरखान का कहना न चाहते हुए भी मानना पड़ा l
निरन्त हिन्दवी स्वराज्य स्थापना का 350 वां वर्ष श्रृंखला 43 = शिवाजी महाराज के सहयोगी मुरारबाजी देशपांडे भाग चार
मुगल फ़ौज दि.03 मार्च 1665 को पुणे में दाखिल हुईl पहला गढ़ पुणे के आग्नेय दिशा में-पुरंदरl इसके साथ मिर्जा राजा ने जुन्नर से लोहगढ़, पुणे, पौड, भोर, मावळ,खेडेबारे, कानद, गुंजणमावळ सब दिशाओं में फ़ौज भेज दीl फ़ौज ने गाँव जलाकर भस्मसात करने का कार्य पूर्ण निष्ठा से किया l
पुरंदर गढ़ पर मुगल फ़ौज आक्रमण करेगी इसका अंदाजा महाराज को
थाl इसलिए महाराज ने वहाँ एक शूर -वीर पराक्रमी योद्धा को सरदार नियुक्त कियाl चंद्रराव मोरे के साथ युद्ध करते हुए महाराज ने जिस हीरे की पहचान की थी, जो दोधारी तलवार जैसा पराक्रमी था-मुरारबाजी देशपांडे l
पुरंदर के पास एक और उससे थोड़ा छोटा गढ़ था, वज्रगढ़ अर्थात रूद्रमाळl पुरंदर पर मुरारबाजी था एवं वज्रगढ़ पर 300 मराठा सैनिक थेl दोनों गढो के बीच थी भैरवखिंडl इस खिंड के कारण एक ही पहाड़ पर बसे दोनों गढ़ अलग दीखते थेl अगर वज्रगढ़ पर शत्रु ने कब्जा कर लिया तो उसे पुरंदर जीतना आसान हो जाता थाl यह बात दिलेरखान भी जानता थाl इसलिए उसने अपनी सारी शक्ति अभी वज्रगढ़ पर केंद्रित की थीl बड़ी फ़ौज के साथ तीन भारी तोपे भी ऊपर आने के लिए तैयार थी
लगातार हमलों से वज्रगढ़ की स्थिति बेहद नाजुक हो गयी, मुरारबाजी सोच रहे थे वज्रगढ़ को सहायता की आवश्यकता है, परन्तु पुरंदर को छोड़कर वहाँ गये तो पुरंदर को खतरा उत्पन्न हो जायेगाl तीनों दिशाओं से तोपों के मार से दि.13 अप्रेल 1665 को वज्रगढ़ का बुर्ज गिर गयाl फिर भी गढ़ को बचाने के लिए मराठे लड़ते रहे, अंततः 14 अप्रेल 1665 को वज्रगढ़ पर मुगलों का कब्जा हुआ l
दिलेरखान सोच रहा था अब पुरंदर गढ़ जीतना आसान हैl पुरंदर के दक्षिण में दाऊदखान कुरैशी व उत्तर में कुंवर किरतसिंह के निर्देशन में पहरा थाl महाराज ने राजगढ़ से बारूद एवं अन्य युद्धसामग्री पुरंदर गढ़ पर भेजने की योजना बनायीl यह सब आसान नहीं था क्योंकि मुगल सेना ने गढ़ को घेर रखा थाl परन्तु मराठों को कठिन कार्य करने में ही आनंद आता थाl मध्यरात्रि का समय था, पुरंदर के दक्षिण दिशा की ओर एक खाई थी 'काळदरी'मुगल इसे खिड़की कहते थेl इस खाई में से बारूद की गठरीयाँ सिर पर लेकर हजारों लोगों के आँखों से एवं उनकी गोलियों से बचकर गढ़ पर जाना थाl खाई में काँटेदार झाड़ियाँ, बड़े-बड़े पत्थर थे, साँप, बिच्छू थेl परन्तु सारे खतरे पार कर मराठे गढ़ के 'केदारद्वार' तक पहुँच गयेl यह खबर दाऊदखान व दिलेरखान को भी मिलीl दिलेरखान ने सावधानी के बारे में दाऊदखान से पूछताछ की, दोनों में झगड़ा हुआl अंत में मिर्जा राजा ने बीच बचाव करके झगड़ा सुलझाया तथा दाऊदखान को स्वराज्य क्षेत्र तहस नहस करने भेज दिया l
गढ़ पर मुरारबाजी भी चुप नहीं बैठे थेl रात को मराठा सैनिक पहरे में जाकर छापा मारते थेl एक दिन कुछ मराठे रात के अंधेरे में दक्षिण दिशा की ओर गये, वहाँ रखी तोप से मुगल सेना गढ़ को नुकसान पहुँचाने के लिए गोले फेंकती थीl मराठों के हाथ में लोहे की जंजीरे व हथोडे थे, इससे कुछ मराठों ने उस तोप के कान में अर्थात जहाँ बत्ती देने का छेद होता है वहाँ जंजीर अटकाकर उसपर हथोड़े से वार कर उस छेद को बंद कर दिया इससे तोप बेकार हो गयीl इतना करके वे सब गढ़ पर वापस लौटे, मुगल सेना ने पीछा किया, लड़ाई हुई तथा चार मराठा सैनिकों का बलिदान हुआ l निरन्तर
सन्दर्भ -- राजा शिवछत्रपति
लेखक -- महाराष्ट्र भूषण व पद्म विभूषण बाबासाहेब पुरंदरे
संकलन -- स्वयंसेवक एवं टीम
Prastuti अशोक जी पोरवाल क्षेत्र स प्र प्र:
हिन्दवी स्वराज्य स्थापना का 350 वां वर्ष श्रृंखला 44 = शिवाजी महाराज के सहयोगी मुरारबाजी देशपांडे भाग पाँच
पुरंदर जीतने की व उसकी रक्षा करने की लड़ाई दोनों ओर से सतत चल रही थीl परन्तु तोपों के गोले अभी भी अपना लक्ष्य भेद नहीं पा रहे थेl परन्तु मिर्जा राजा ने ऊँचे धमधमे निर्माण करने की योजना बनायी, उसपर तोपे एवं बन्दुकधारियों को चढ़ाकर गढ़ पर तोपों से तथा बन्दुकों से निशाना साधा जा सकता थाl यह ढांचे लकड़ी से बनवाना शुरू हुआl दि.30 मई 1665 को पहला ढांचा बनकर तैयार हुआl अब तोपों से गोले दागना आसान थाl तोपे, बंदूके, तीर दोनों तरफ से चल रहे थेl इस परिस्थिति में भी मराठों ने मुगल सेना की तीन टुकड़ियाँ एक के बाद एक मार गिरायी l
अब दिलेरखान ने गढ़ के 'सफ़ेद बुर्ज' के नीचे सुरंग बनाने की योजना बनायीl गढ़ पर मुरारबाजी एवं अन्य सैनिकों ने एक ओर योजना पर पहले से काम प्रारम्भ कर दिया थाl सफ़ेद बुर्ज के पीछे काला बुर्ज था, इन दोनों को जोड़ने वाली दीवार चौड़ी थीl इसमें बारूद भरकर रखा गया थाl मुरारबाजी ने सोचा था अगर सफ़ेद बुर्ज गिर जाता है तो मुगल सेना काले बुर्ज की तरफ आने के लिए इकठ्ठा होगी, जब ऐसा होगा तब इस बारूद को उड़ा दिया जायेगा जिससे मुगल सेना उसी स्थान पर यमलोक पहुंच जाएगी, बचने का कोई रास्ता नहीं होगाl परन्तु कैसे पता नहीं उस बारूद में आग लगी तथा एक साथ 80 मराठे हताहत हुएl नीचे के हिस्से तक अब पुरंदर मुगलों के हाथ में था l
रूद्रमाळ पर मुगलों का कब्ज़ा था अब वे पुरंदर निगलने के लिए तैयार थेl इस हार से मुरारबाजी बेचैन हो उठाl अभी भी तोपे आग उगल रही थी परन्तु जब तक गढ़ के मध्य तक गोले नहीं पहुँचेगे तब तक गढ़ को खतरा कम था l
दिलेरखान पाँच हजार पठान व बहलियों को लेकर गढ़ के बालेकिल्ले पर आक्रमण करने की तैयारी में थाl इसी समय मुरारबाजी ने निश्चय किया कुछ साथियों को लेकर सीधे सामने से आक्रमण करने की योजना बनायीl गढ़ पर एक हजार की फ़ौज थी, उनमें से सात सौ मराठों को लेकर सीधे दिलेरखान की फ़ौज पर आक्रमणl नीचे से पठान व ऊपर से मराठेl शत्रु ऊपर चढ़ रहा था, उसके गढ़ पर आने की राह न देखते हुए मुरारबाजी व मराठे चितों जैसे उनपर झपट पड़ेl पाँच हजार के सामने केवल सात सौ का आवेश तो लाखों पर भारी पड़ने जैसा थाl मुरारबाजी का आवेश देखकर तो लग रहा था यह स्वयं मार्तण्डभैरव!कालभैरव!प्रलयभैरव!है l वज्रगढ़ व सफ़ेद बुर्ज के हार के अपमान से क्रोधित यह रूद्रकेदार पाठनों पर टूट पड़ाl मुगल सैनिकों के टुकड़े करते हुए ढाल-तलवार घूम रही थीl प्रत्यक्ष रूद्र! बस मन में एक ही विचार यही है पठान जिन्होंने वज्रगढ़ हथिया लिया, यही है पठाण जिन्होंने पुरंदर गढ़ के कंठ को नाख़ून लगाया, अब काटो, मारो ऐसी प्रत्येक के मन में प्रतिशोध की भावना थीl पठान भी लड़ रहे थे परन्तु मुरारबाजी व मराठे क्रोध से भरे थे एवं लड़ रहे थेl इस अचानक आक्रमण का सामना मुगल सेना नहीं कर पायीl दिलेरखान छावनी में लौट गयाl ऐसे कत्लेआम करते हुए मुरारबाजी व मराठे गढ़ से उतर रहे थेl अनेकों पठान व बहलिये मारे गयेl अभी भी रास्ते में जो आ रहा था वह तलवार से कट रहा थाl इसके बाद बेफाम, बेहोश मुरारबाजी सीधे दिलेरखान की छावनी में घुसाl जो जो मुरारबाजी की तरफ आया वह जीवित नहीं बचाl सीना, सिर, गर्दन जहाँ मिले मुरारबाजी की तलवार चल रही थीl दिलेरखान के मन में विचार आया इसके सामने तो जल उठा बारूद भी कम हैl पराक्रम तो देखो, मुगल सरदार की छावनी में घुसकर मुरारबाजी दिलेरखान पर अपनी दृष्टी गड़ाए खड़ा थाl यह देखकर दिलेरखान ने सोचा अगर शिवाजी के वीर योद्धा ऐसे है तो स्वयं शिवाजी कैसा होगा? इसकी झलक वह वज्रगढ़ पर भी अनुभव कर चुका थाl अभी तक दिलेरखान मराठों पर तीर चला रहा था, वह रुक गया, उसने मुरारबाजी को रुकने के लिए कहाl मुरारबाजी रुक गयाl खान कहने लगा, "अय बहादुर, तुम्हारी बहादुरी देखकर मैं निहायत खुश हूँl तुम हमारे साथ चलो!हम तुम्हारी शान रखेंगे!"यह शब्द सुनकर मुरारबाजी को गुस्सा आया, उसने सोचा यह तो मेरी निष्ठा का अपमान हैl थू, खान के ईमान व पुरस्कार पर मैं थूकता हूँl मुझे गद्दारी करने के लिए बोल रहा हैl हम महाराज के गले की माला के मोती है क्या हम शत्रु के गले की माला बनेंगे? कभी नहींl मुरारबाजी को जागीर, इनाम, पुरस्कार नहीं चाहिये, उसे चाहिये दिलेरखान की गर्दन l निरन्तर
स्वराज्य स्थापना का 350 वां वर्ष श्रृंखला 45 = शिवाजी महाराज के सहयोगी मुरारबाजी देशपांड भाग छः
मुरारबाजी खान की तरफ दौड़ा, मैं महाराज का सिपाही हूँ, गद्दारी हमारे खून में नहीं है, मिठाई से भरे उस लालच के थाल को ठोकर मारकर मुरारबाजी की तलवार घूमने लगीl खान ने धनुष-तीर उठाया व सीधे मुरारबाजी का कंठ उसका लक्ष्य बनाl तीर ने मुरारबाजी के प्राणों की आहुति लीl पच्चिस-तीस हजार की फ़ौज पर अपने सात सौ वीरों के साथ सामने से आक्रमण करना कोई आसान बात नहीं थीl दिलेरखान का उस दिन का आक्रमण का खेल मुरारबाजी ने बिगाड़ दियाl शायद यह 16 मई 1665 का दिन होगाl बचे हुए मराठे मुरारबाजी का शव लेकर गढ़ पर पहुँच गयेl खबर महाराज तक पहुँची, स्वजनों के बलिदान से महाराज आहत हुएl
मुरारबाजी के इस योजना के पीछे यही विचार था कि अधिक से अधिक मुगल सैनिकों को मौत के घाट उतारकर पुरंदर के घेरे को (पहरे को) विफल करनाl मुरारबाजी की मृत्यु के पश्चात् दिलेरखान भी आश्चर्यचकित होकर देख रहा था एवं अनायास बोल पड़ा-"यह कैसा सिपाही खुदा ने पैदा किया!"
मुरारबाजी का बलिदान देखकर मराठा सेना ने अधिक आवेश से लड़ाई जारी रखीl जैसे कि वे मुरारबाजी को वचन दे रहे ठीक कि आप निश्चिन्त रहिये, जब तक हमारे शरीर में प्राण है, सीने की ढाल बनाकर हम लड़ते रहेंगेl सरदार की मौत से सैनिक अधिक जोश से पुरंदर की रक्षा कर रहे थे, खान की सेना के सामने झुकने को तैयार नहीं थेl कारण महाराज ने उन्हें एक मन्त्र दिया था, सरदार के बलिदान से युद्ध समाप्त नहीं होता है, दूसरा-तीसरा ऐसे अनगिनत सरदार बनते रहें तथा लड़ाई जारी रहीl स्वराज्य में प्रत्येक सैनिक सरसेनापति, भगवा ध्वज के लिए एवं उसकी रक्षा के लिए युद्ध चलता ही रहेगाl यह सीख याद रखते हुए प्रत्येक व्यक्ति हमला बोल रहा थाl तलवार, पट्टा, भाला, कुल्हाड़ी, पत्थर जो हाथ में था उससे हमला कर रहे थे मराठेl दिलेरखान की सेना के सामने दो ही रास्ते थे-मौत अथवा मैदान छोडो l
दिलेरखान सोचने लगा अब और कितने दिन पुरंदर के लिए लड़ते रहना है? अब मराठों की ताकत को वह पहचान गयाl आज दो महीने हो गये परन्तु गढ़ कब्जे में नहीं आ रहा हैl उसने सोचा अगर शिवाजी के एक गढ़ पर कब्जा करने में इतने दिन लग रहे है, तो सारे गढ़ो पर कब्जा करने में कितने दिन लगेंगे? कब शिवाजी हाथ में आएगा? यह तो मृगमरिचिका हैl कब पार लगेगा इससेl यह सोचते- सोचते उसकी बुद्धि पर जैसे की ताला लग गया l
पुरंदर गढ़ जीतने का श्रेय दिलेरखान लेना चाहता थाl परन्तु स्वराज्य की सुरक्षा का विचार करते हुए अत्यंत विवेक से महाराज मिर्जा राजा से भेंट करने उनकी छावनी में गयेl उसी समय मिर्जा राजा के आदेश से ही गढ़ पर हमले तेज कर दिये गयेl महाराज ने गढ़ पर शेष बचे लोगों के बारे में सोचकर एक क्षण में निर्णय लेकर कहा, "राजाजी, यह पुरंदर मैं फ़ौरन आपके कब्जे में देता हूँ, बादशाह को नज़र करता हूँl पुरंदर पर हमारे जो लोग है उनका कत्ल मत कीजियेl गढ़ मैं स्वयं खाली करके आपके सुपूर्द करता हूँl अब मैं बादशाह का बंदा हूँl दिलेरखान को सूचना दी गयी, हमले रुकवा दिये गयेl इतने महीने की गयी मेहनत व्यर्थ गई, गढ़ जीतने का श्रेय दिलेरखान के हिस्से में नहीं आयाl इससे वह मायूस हो गया l
मराठों के पराक्रम की जितनी प्रशंसा की जाये उतनी कम है, अंत में दि.12 जून 1665 को अपना कर्तव्य अंतिम क्षण तक निभानेवाले ये शूरवीर गढ़ से नीचे उतर गये l
सन्दर्भ -- राजा शिवछत्रपति
लेखक -- महाराष्ट्र भूषण व पद्म विभूषण बाबासाहेब पुरंदरे
संकलन -- स्वयंसेवक एवं टीम
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