हिन्दवी स्वराज्य स्थापना का 350 वां वर्ष श्रृंखला 40 = शिवाजी के सहयोगी मुरारबाजी देशपांडे भाग एक
सन 1647 में दौलतराव चंद्रराव मोरे की मृत्यु हुईl 'चन्द्रराव' यह उनको मिला ख़िताब थाl दौलतराव बीजापुर के आदिलशाह का विनम्र सरदार थाl जावळी में दौलतराव का एकतरफा शासन चलता थाl जावळी स्वराज्य से एक अलग जागीर थीl चारों ओर से सह्याद्री पर्वत के पहाड़ों से घिरी जावळी अत्यंत सुरम्य व सुरक्षित स्थान था l
दौलतराव के निधन के पश्चात उनकी पत्नी के मन में विचार आया कि मैं तो निःसंतान हूँ अब जावळी का वारिस बनने के लिए रिश्तेदार आपस में भिडेंगे अथवा यह दौलत बीजापुर दरबार के हाथ में चली जाएगीl उसने विवेक से काम लियाl उसने शिवाजी महाराज को जावळी आने का निमंत्रण दियाl महाराज के मन में जावळी के बारे में निश्चित योजना आकार ले रही थी-जावळी को स्वराज्य के छत के नीचे लाने की योजना थीl निमंत्रण मिलते ही महाराज थलदल व अश्वदल लेकर जावळी पहुँचेl दौलतराव की पत्नी ने शिवथर के मोरे परिवार के एक बालक को गोद लेने का विचार किया थाl जावळी में आते ही महाराज ने अपने सैनिकों के पहरे बिठाकर जावळी पर अधिपत्य जमायाl यह काम महाराज ने उस स्त्री का विश्वासघात करने के लिए नहीं किया था क्योंकि महाराज के संस्कार ऐसे नहीं थेl केवल दौलतराव की पत्नी ने जो विचार किया था वह निर्विघ्नता से संपन्न हो इसलिए महाराज ने यह कदम उठाया थाl दौलतराव की पत्नी ने जिस बालक का चयन किया था उसे 'चंद्रराव'का ख़िताब देकर महाराज ने उसे गद्दी पर बिठाया-यह बालक 35-40 वर्ष का युवक थाl महाराज ने दूरदृष्टी से विचार कर यह कदम बढ़ाया था कि भविष्य में 'चंद्रराव' स्वराज्य का सिपाही बनेगाl
दौलतराव के मृत्यु के बाद आदिलशाह ने जावळी हड़पने के लिए फरमान जारी किया था परन्तु महाराज के सुनियोजित चाल से ऐसा नहीं हो पाया अर्थात जावळी 'चंद्रराव'
के अधिपत्य में रही-इनका नाम यशवंतराव मोरे था l
चंद्रराव महाराज के साथ पडोसीधर्म निभाता रहा परन्तु अचानक उसकी महत्वकांक्षा बढ़ने लगीl जावळी के साथ गुंजण मावळ की देशमुखी पर वह अधिकार जताने लगाl यह अन्याय महाराज सह नहीं पाए क्योंकि गुंजण मावळ की देशमुखी पर शिळमकर देशमुख का अधिकार था, महाराज ने उनका पक्ष लिया इसलिए चंद्रराव को क्रोध आया परन्तु उसने अभी कुछ कदम उठाना ठीक नहीं समझाl अब चंद्रराव बिरवाड़ी के पाटिल का अधिकार हथियाने लगाl पाटिल महाराज के पास गये एवं महाराज ने वचन दिया, तुम्हें तुम्हारा अधिकार मिलेगाl इसके बाद चंद्रराव रोहिडाखोरे गया, यह क्षेत्र स्वराज्य के सरहद में था, वहाँ उसने क्षेत्र पर अधिपत्य के लिए चिखली के पाटिल तथा उनके बेटे को मौत के घाट उतार दियाl उसकी ये हरकते महाराज तक पहुँच रही थी l निरन्तर
सन्दर्भ -- राजा शिवछत्रपति
लेखक -- महाराष्ट्र भूषण व पद्म विभूषण बाबासाहेब पुरंदरे
संकलन -- स्वयंसेवक एवं टीम
प्रस्तुति अशोक जी पोरवाल क्षेत्र स प्र प्र:
हिन्दवी स्वराज्य स्थापना का 350 वां वर्ष श्रृंखला 41 = शिवाजी के सहयोगी मुरारबाजी देशपांडे भाग दो
महाराज द्वारा दिया गया साथ एवं किया गया उपकार चंद्रराव भूल गयाl उसे लगा मैंने अगर कुछ कर भी लिया तो आक्षेप लेने का अधिकार किसको है तथा जावळी दुर्गम स्थान है, यहाँ कोई नहीं आ सकताl उसके पास थलदल व अश्वदल थाl इसके साथ मंगलगड,मकरंदगड, रायरीगड व मैदानी दुर्गम भाग पर उसका अधिपत्य था,धनदौलत भी थी l घमंड से वह स्वयं को राजा कहलवाता थाl यह खबर महाराज के पास पहुँचीl महाराज ने पत्र भेजकर समझाइश देने का प्रयत्न कियाl अंत में गलत काम करने पर बंदी बनाने की बात भी लिखीl चंद्रराव ने उल्टा जवाब भेजा-"हम कोंकण के राजा है, श्री महाबळेश्वर की कृपा से शासन चलाते है, उसकी कृपा से ही हम सिंहासन पर बैठे हैl हम यहाँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी शासन कर रहे हैl अगर आपने जावळी पर आक्रमण किया तो आपकी हार निश्चित हैl" यह पत्र पढ़कर महाराज ने फिर भी युद्ध की योजना नहीं बनायीl फिर एक पत्र भेजकर अवसर दियाl जावळी से निकलकर, हाथ पीछे बांधकर आना, स्वराज्य की चाकरी करना अन्यथा बगावतखोर समझकर तुम्हें मौत के घाट उतारा जायेगाl "चंद्रराव फिर भी विरोध में खड़ा रहाl महाराज स्वराज्य हो एवं एक स्वराज्य हो इसके लिए सभी कार्य कर रहे थेl अतः यह बगावत स्वराज्य के हित में नहीं है यह सोचकर महाराज ने निश्चय किया
-बस अब जावळी स्वराज्य में ही होगीl चंद्रराव की एक हजार की फ़ौज का घमंड तोडना ही होगा l
महाराज ने कान्होजी, हैबतराव शिळमकर, संभाजी कोंढाळकर, रघुनाथपंत सबनिस के साथ चर्चा की तथा निष्कर्ष निकाला चंद्रराव को परास्त किये बिना जावळी स्वराज्य में शामिल नहीं हो सकेगी l
योजना के अनुसार रघुनाथपंत चंद्रराव से मिलने जावळी गयेl साथ में शस्त्रधारी साथी भी थेl पंत की बात मानने से चंद्रराव ने इंकार कियाl फिर देखते-देखते जोहोर, शिवथर व जावळी पर आक्रमण हुआl दोनों तरफ से आवेश से शस्त्र चल रहे थेl चंद्रराव मोरे भी पराक्रमी थे एवं उनके साथ था एक पराक्रमी वीर, वीरश्री से वार कर रहा था, उसका शस्त्र जैसे श्रीकृष्ण का सुदर्शन चक्रl मराठों को एक कदम भी आगे नहीं आने दे रहा थाl उस वीर योद्धा का नाम था मुरारबाजी देशपांडे l
चंद्रराव पर चारों ओर से आक्रमण हुआl हणमंतराव मोरे मारा गयाl स्वयं चंद्रराव परिस्थिति देखकर भाग निकला तथा रायरीगढ़ पर जा छुपाl प्रतापराव मोरे बीजापुर भाग गयाl महाराज स्वयं जावळी आयेl मुरारबाजी का आवेश व पराक्रम देखकर खुश हुए परन्तु महाराज ने विचार किया मुरारबाजी गलत बात के लिए, गलत लोगों का साथ दे रहा हैl उसे समझाने की आवश्यकता है कि स्वराज्य स्थापना तो ईश्वर का कार्य हैl अंत में दि.15 जनवरी 1656 को जावळी का परिसर स्वराज्य में शामिल हुआl महाराज ने मुरारबाजी को बिठाकर समझाया- मोरे परिवार से शिवाजी भोसले की कोई दुश्मनी नहीं है परन्तु स्वराज्य टुकड़ों में विभाजित रहने से शत्रु से खतरा रहेगाl चंद्रराव यह बात समझ नहीं रहा है एवं वह किया गया उपकार भी भूल गया इसलिए केवल स्वराज्य के लिए यह करना आवश्यक थाl महाराज ने कहा, "मुरारबाजी तुम्हारे जैसे पराक्रमी लोगों के साथ आने से स्वराज्य शक्तिशाली बनेगाl तुम्हारी तलवार स्वराज्य के हित में चलनी चाहियेl स्वराज्य को तुम्हारे जैसे शूरवीरों की आवश्यकता हैl" मुरारबाजी स्वराज्य का महत्व समझ गया तथा स्वार्थभरी चाकरी त्यागकर महाराज के साथ खड़ा हुआ-स्वराज्य को एक अमूल्य रत्न प्राप्त हुआl निरन्तर
सन्दर्भ -- राजा शिवछत्रपति
लेखक -- महाराष्ट्र भूषण व पद्म विभूषण बाबासाहेब पुरंदरे
संकलन -- स्वयंसेवक एवं टीम
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