हिन्दवी स्वराज्य स्थापना का 350 वां वर्ष श्रृंखला 32 = शिवाजी महाराज के सहयोगी बाजीप्रभु देशपांडे भाग पाँच
सिद्दी जौहर की छावनी में पालकी में शिवाजी के स्थान पर शिवा काशीद को देखकर जौहर क्रोधित एवं मसूद लज्जित थाl एक क्षण में ख़ुशी काफूर हो गयी l
उधर महाराज की पालकी लेकर कहार, अन्य सैनिक अभी भी दौड़ रहे थे विशाळगढ़ की ओरl मसूद फिरसे दो हजार का अश्वदल व एक हजार का थलदल लेकर उस कीचड भरे रास्ते पर अंधेरे में शिवाजी को पकड़ने के लिए दौड़ रहा थाl थकान व फजीहत हुई सो अलग अब यह इज्जत का सवाल बन बैठा l
विशाळगढ़ पर नीचे जसवंतराव व सूर्यराव का पहरा था एवं पीछे मसूद की सेना थी l
दिनांक 13 जुलाई 1660, सूर्योदय हुआ मसूद के अश्वदल की ललकार भी सुनाई दीl महाराज, बाजीप्रभु, सैनिक सब चिंताग्रस्त थेl वे सब गजापुर की घोडखिंड में आ पहुँचे l
विशाळगड अभी भी दो मील दूर था तथा मसूद पीठ पर आकर खड़ा था l अगर मसूद की सेना से सामना हुआ तो रातभर श्रम करके थके हुए सैनिकों का बलिदान निश्चित था l महाराज को सभी की चिंता थी एवं बाजीप्रभु को महाराज को कैसे सुरक्षित रखा जाये इसकी चिंता थीl महाराज का वहाँ एक क्षण भी रुकना घातक सिद्ध हो सकता थाl घोडखिंड की ऊँचाई अधिक थी तथा मार्ग एकदम संकरा थाl ऐसी परिस्थिति को देखकर बाजीप्रभु महाराज को निवेदन करने लगा, शत्रुबल अधिक है, हम संख्याबल में उनकी तुलना में बहुत कम है, आपका यहाँ रुकना खतरे से खाली नहीं हैl आप विशाळगड की ओर जाइयेl मैं इस खिंड में शत्रु को रोककर रखूँगाl एक को भी ऊपर चढ़ने नहीं दूँगाl आप जाइये!महाराज जाइये!"
यह उस निष्ठा का परिणाम था जो स्वराज्य के प्रति थी, यह उस प्रेम तथा भक्ति का ही परिणाम था जो महाराज के प्रति थीl केवल कुछ साथियों के सहारे बाजीप्रभु महाराज के रक्षण हेतु नयी योजना पर अमल करना चाह रहे थे l
महाराज इसके लिए तैयार नहीं थे, जान की बाजी लगानेवाले साथियों को मौत के मुँह में छोड़कर जाना महाराज के लिए कठिन थाl बाजीप्रभु ने आर्तता से फिर से कहा, हाथ जोड़कर विनती की, "महाराज, आप जाइये!आधे साथियों के साथ मैं खिंड में शत्रु को रोककर रखता हूँl दोपहर तक शत्रु की सेना को मैं आपकी ओर एक कदम भी नहीं बढ़ाने दूँगाl विशाळगढ़ पर पहुँचने पर तोपों की आवाज से संकेत देना, तब तक शत्रु आपके ओर नहीं आएगा यह बाजी का वचन हैl महाराज के लिए, स्वराज्य के लिए बलिदान हुआ तो भी यह ईश्वर का कार्य हैl "महाराज के कदम उठ नहीं पा रहे थे, उन्होंने बाजी को गले से लगाया, बाजी ने फिर हाथ जोड़े एवं बाजी के प्रेम की खातिर महाराज भारी मन से वहाँ से विशाळगढ़ की ओर निकले तथा जाते समय कहा,"मैं विशाळगढ़ पर राह देख रहा हूँ l " निरन्तर
सन्दर्भ -- राजा शिवछत्रपति
लेखक -- महाराष्ट्र भूषण व पद्म विभूषण बाबासाहेब पुरंदरे
संकलन -- स्वयंसेवक एवं टीम
हिन्दवी स्वराज्य स्थापना का 350 वां वर्ष श्रृंखला 33 = शिवाजी महाराज के सहयोगी बाजीप्रभु देशपांडे भाग छः
बाजी व सारे मराठा सैनिक जो हिरडस मावळ भाग के थे आवेश से शत्रु पर टूट पड़ेl प्रारम्भ तो उन्होंने पत्थरबाजी से ही कियाl बड़े-बड़े पत्थर शत्रु पक्ष के सैनिकों को अपना निशाना बना रहे थेl सम्पूर्ण रात दौड़कर थके हुए इन वीरों में शत्रु को देखकर जोश उत्पन्न हुआl बाजी के दोनों हाथों में तलवार थी एवं वे सपासप शत्रु को काट रहे थेl बाजीप्रभु का शरीर जख्मों से भर गया था, खून टपक रहा था, अधिकतर साथी मारे भी गये थेl बल कम हो रहा था परन्तु अभी तक गढ़ से तोप की आवाज का संकेत सुनायी नहीं दिया थाl -- दोपहर के चार बजे थे l
महाराज भी जसवंतराव व सूर्यराव की सेना से लड़ रहे थे, उन्हें शीघ्र गढ़ पर पहुँचना था क्योंकि बाजीप्रभु वहाँ खिंड में संकेत की राह देख रहे थेl अंत में उन दोनों का पहरा तोड़कर महाराज पूरे 21 घंटों बाद, दिनांक 13 जुलाई 1660 की शाम को 6 बजे विशाळगढ़ पर पहुँचे l
घोडखिंड में भी मराठे कल रात से शत्रु को चकमा देते-देते व विशाळगढ़ की ओर जाने में रोकने के लिए 21 घंटे से लड़ रहे थे केवल महाराज व स्वराज्य के लिएl अब बाजीप्रभु का शरीर जख्मों से जर्जर हो गया था, जान कानों में आकर अटक गयी थी, बस अब तोप की आवाज ही लक्ष्य थाl घोडखिंड में खून ही खून थाl अब शरीर की ताकत कम होने लगी तभी तोप की आवाज से खबर मिली महाराज सुरक्षित विशाळगढ़ पहुँच गयेl जैसे महाराज बाजीप्रभु को आवाज लगा रहे थे, "बाजी जल्दी आओ, मैं गढ़ पर पहुँच गया हूँ, तुम्हारी राह देख रहा हूँ l"
तोप की आवाज सुनकर बाजी के खुशी का ठीकना नहीं रहा, सभी साथी भी खुश थे, "महाराज पहुँच गये, महाराज पहुँच गये" इतने में शत्रु ने बाजी पर अंतिम वार किया, अकस्मात घात हुआ तथा बाजी का शरीर महाराज को अंतिम वंदन करते हुए धरा पर गिराl "महाराज मुजरा"
बाजीप्रभु के बलिदान से घोडखिंड पावन हुई, गजापुर की घोडखिंड -पावनखिंड हुईl
इतिहास कहता है इस खिंड में बाजीप्रभु ने एवं हिरडस मावळ के बांदलों ने स्वराज्य के प्राण की रक्षा कीl पावनखिंड की मिट्टी का सुगंध बाजी के त्याग व समर्पण की कथा सुनाता हैl अगर वहाँ की मिट्टी पानी में डाली जाएँ तो बाजी के खून से पानी लाल हो जाएगाl किसीने वहाँ की जमीन को कान लगाकर सुना तो सुनाई देगा 'हर हर महादेव'l पावनखिंड के रूप में बाजीप्रभु अमर हुए l
स्वराज्य को शिवालय समान मानकर अनेकों ने अपने शरीर की दीपमालाएँ प्रज्ज्वलित रखीl महाराज को शिवशम्भू का दर्जा देकर अपने प्राणों के बिल्वपत्र महाराज की अंजुली में रखेंl बाजीप्रभु जैसे अनेक पुरुषोत्तम थे जिन्होंने स्वधर्म, ईश्वर, स्वराज्य एवं महाराज के लिए अपने प्राणों की बलि देकर भोग लगायाl इनमें से कुछ के नाम इतिहास को ज्ञात हैl परन्तु ऐसे अनगिनत अमूल्य हिरे थे जिन्होंने गड़ों पर, खाइयों में, घाटी व खिण्डों में अपना बलिदान दियाl उनके नाम, गाँव, संख्या इतिहास को ज्ञात नहींl कोई कुलकर्णी, कोई रामोशी, कोई गाँवजोशी, कोई महार, कोई नाई, कोई किसान, कोई भंडारी, कोई देशपांडे था जो स्वराज्य के लिए अपना बलिदान देने के लिए तत्पर था इनके बलिदान के कारण ही स्वराज्य जीवित रहा, उसका रक्षण व पोषण हुआ l
दिनांक 13 जुलाई 1660 को बाजीप्रभु तथा अन्य सैनिकों ने अपने बलिदान से इस तिथि को अमर किया
ऐसे असामान्य कार्य करनेवाले सामान्य जनों ने असामान्य इतिहास निर्माण कियाl मुट्ठीभर सामान्य जन निष्ठा, त्याग व समर्पण से एक होते है तो वे महायुद्ध भी जीत सकते हैं, अत्याचारों के सिंहासन पलटा सकते हैं, वज्र जैसे संकटों को बारूद लगा सकते हैं l एक बार पुनः ज्ञात अज्ञात बलिदानी वीरो को शत शत नमन l l
सन्दर्भ -- राजा शिवछत्रपति
लेखक -- महाराष्ट्र भूषण व पद्म विभूषण बाबासाहेब पुरंदरे
संकलन -- स्वयंसेवक एवं टीम
हिन्दवी स्वराज्य स्थापना का 350 वां वर्ष श्रृंखला 34 = पहली सर्जिकल स्ट्राइक - शाइस्तेखान की उँगलियाँ काटना भाग एक
अफजलखान के वध के पश्चात, साढ़े तीन महीने बाद रुस्तमेजमान एवं फाज़लखान महाराज को बंदी बनाने के लिए आयेl परन्तु उन्हें भागना पड़ा विगत 12 वर्षों में महाराज तथा उनके साथियों ने अनेकानेक सरदारों की दुर्दशा कीl समुद्रकिनारा, पूर्व महाराष्ट्र, दक्षिण महाराष्ट्र, उत्तर कर्नाटक सभी प्रांतों में महाराज ने हिन्दवी स्वराज्य का भगवा ध्वज लहरायाl साढे तीन सौ साल जो अस्मिता सोयी थी, सुल्तान के अत्याचारों से त्रस्त मराठा सही नेतृत्व के कारण बल के साथ उठ खड़ा हुआl इस अस्मिता से नृसिंह प्रकट हुआl केवल मुगल ही नहीं परन्तु अंग्रेज, पुर्तगाली, डच सभी पर मराठों के वीरश्री का नर्तन उन्हें परास्त कर रहा थाl किसने जगायी यह अस्मिता!मंदिरों की खंडित मूर्तियों ने, ध्वस्त तीर्थक्षेत्रों ने, नष्ट फसलों ने, अपमानित मातृभाषा एवं वैदिक ऋचाओं ने, हमें भ्रष्ट किया है अब नष्ट करेंगे उठो!
रुस्तमेजमान तथा फाज़लखान की हार से आदिलशाही भयभीत थीl आदिलशाह ने सिद्दी जौहर को शिवाजी को कैद करने के लिए भेजाl
साथ में मुस्लिम सल्तनत शिवाजी के कारण खतरे में है एवं शिवाजी का नाश करना आवश्यक है इस आशय का एक पत्र औरंगजेब को भेजकर उससे भी सहायता की याचना कीl इस पत्र के अनुसार मामा शाइस्तेखान के नेतृत्व में औरंगजेब ने भारी-भरकम फ़ौज भेज दी पर इशारा किया अलग मुहीम चलाने काl
शाइस्तेखान की फ़ौज में तीस हजार थलदल, सतहत्तर हजार अश्वदल, नौकर, चाकर, हाथी तोपे,ऊँट तोपे, अश्वतोपे,बारूद एक सौ ऊँट, चार सौ हाथी थेl इन सबके साथ शाइस्तेखान स्वराज्य की ओर रवाना हुआ-दिनांक 28 जनवरी 1660
औरंगजेब का फरमान आया उस समय शाइस्तेखान औरंगाबाद में थाl मुख़्तारखान को औरंगाबाद की जिम्मेदारी सौंपकर शाइस्तेखान अहमदनगर पहुँचा-दि.11 फरवरी 1660, वहाँ से 25फरवरी 1660 को निकलकर 03 मार्च 1660 को खान सोनवडी पहुँचाl फिर एक बार मंदिर व मठ ध्वस्त हुए, मुर्तियाँ खंडित होने लगी, फसले नष्ट होने लगी, अत्याचारों से परेशान लोग व व्यापारी भागने लगे, गाँव खाली होने लगेl इसके बाद खान सुपे जागीर की ओर आया एवं सुपे जागीर का ध्वज अपमानित हुआl स्वयं जाधवों ने मुगल फ़ौज तथा हाथी घोड़ों के लिए अनाज व घास की व्यवस्था की, जाधव अर्थात माँसाहेब का पीहर l खान वहाँ से बारमती गया-दि.05
अप्रेल 1660 एवं उसने इंदापुर पर कब्जा कर लियाl ऐसा करते हुए खान सोच रहा था मेरा विरोध करने की हिम्मत शिवाजी में नहीं हैl इस समय महाराज पन्हाळगड पर सिद्दी के पहरे में अटके थेl परन्तु खान की गलतफहमी को मराठों ने करारा जवाब दिया, कुछ मराठों ने खान की फ़ौज पर आक्रमण किया, लूटपाट की, कुछ को यमसदन पहुँचाया तथा वे भाग गयेl यह फ़ौज राजगढ़ से आती थी एवं राजगढ़ पर माँसाहेब थी, फिर यह लगातार होता रहा l
खान नीरा नदी के किनारे होळ गाँव पहुँचा-दि.16 अप्रेल 1660 वहाँ से शिरवळ गयाl वहाँ के सुभानमंगळ दुर्ग पर कब्जा कियाl वहाँ से वह शिवापुर आया तथा वहाँ से सासवडl प्रचंड सेना घाटी से संथ गती से जा रही थी एवं आसपास के पहाड़ों से मराठों ने आकर हमला किया तथा वे भाग गयेl अब ऐसा सतत होने से खान परेशान हुआ एवं उसने सोचा अब सीधे पुणे जाना चाहिएl राजेवाडी, पाटस, यवत, हडपसर होते हुए खान पुणे की तरफ आयाl दि.09 मई 1660 को पुणे खान के कब्जे में गयाl शिवाजी के पुणे पर कब्जा करने से खान बहुत खुश हुआ फ़ौज की छावनी मुठा नदी के किनारे बसायी गयी तथा खान खुद महाराज के खास 'लाल महल'में अपना डेरा जमाने के लिए बढ़ा l
खान ने औरंगाबाद से लेकर पुणे आने तक स्वराज्य को तहस नहस किया एवं सम्पूर्ण पुणे प्रभाग को अपने अत्याचारों से परेशान कियाl पुणे की देशमुखी पाने के लालच में कृष्णाजी काळभोर, देशपांडे बाबाजी राम होनप खान के साथ हो लिये l निरन्तर
सन्दर्भ -- राजा शिवछत्रपति
लेखक -- महाराष्ट्र भूषण व पद्म विभूषण बाबासाहेब पुरंदरे
संकलन -- स्वयंसेवक एवं टीम
प्रस्तुति अशोक जी पोरवाल क्षेत्र स प्र प्र:
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