: हिन्दवी स्वराज्य स्थापना का 350 वा वर्ष श्रृंखला 142= वेदशास्त्र संपन्न गागाभट्ट भाग दो
श्रीगंगा नदी के किनारे काशीक्षेत्र में एक महापंडित निवास करते थेl संस्कृत में ग्रन्थलेखन में उनकी रूचि थीl दख्खन में बजनेवाले नगाडों की व जयघोष की ध्वनि उनके कानों तक पहुँचीl दृश्य रमणीय था,गड-कोट द्वारों पर सैनिक थे एक दिव्य व्यक्तित्व अश्वारुढ होकर गढ में प्रवेश करते समय वे सैनिक उसे झुककर मुजरा (प्रणाम) कर रहे थेl आगे-पीछे अश्वदल था व साथ में भगवा ध्वज हवा में लहरा रहा थाl आसमंत हर- हर महादेव के घोष से भर गया थाl अर्थात दख्खन में नया इतिहास लिखा जा रहा था, इस कारण उस महापंडित का ह्रदय आनंद से पुलकित थाl
यवनों की चार सत्ताओं से आवेश से लड़नेवाले उस पराक्रमी महापुरुष की रोमहर्षक गाथाएँ चारों ओर फैल रही थीl आगरा कैद से भाग जाने जैसे शौर्य व बुद्धियुक्ति के प्रसंग सुनकर लोग आश्चर्यचकित हो रहे थेl धर्म- संस्थापना के लिए वह स्वराज्य स्थापन कर रहा है, वह प्राचीन राजाओं की मालिका में बैठने योग्य पुण्यश्लोक राजा है! महम्मद नुस्त्रती जैसे शत्रुपक्ष के कवि भी उसके उदात्त चरित्र गा रहे हैंl यह देखकर सबकी गर्दन आदर से झुक रही थीl
काशी के उस महापंडित के कान पर भी राजा के यशकीर्ति के स्वर पहुँच गये थेl सम्पूर्ण भारतवर्ष यवनों ने पादाक्रांत किया था व धर्म, संस्कृति, समाज मृतवत था, श्मशानी निराशा व स्वाभिमान शून्यता का तमस थाl ऐसे समय अपने अलौकिक कर्तुत्व से उस व्यक्ति ने नये युग का निर्माण किया थाl अर्थात यह ईश्वरी अंश ही होगा, अन्यथा यह संभव नहीं थाl बार-बार महापंडित के मन में ये विचार आ रहे थेl इसके साथ ही औरंगजेब ने काशी, पंजाब क्षेत्रों में किये अमानवीय अत्याचार उसकी आँखों के सामने दिख रहे थेl साधु- फकीरों का कत्लेआम, विश्वासघात, विध्वंस सब आँखों के सामने थाl ऐसे में उस पुण्यश्लोक महापुरुष के दर्शन की अभिलाषा न हो तो आश्चर्य!उन्होंने काशी से महाराष्ट्र आने के लिए प्रस्थान किया-कौन थे वे महा- पंडित? वे थे, वेदोनारायण, काशीक्षेत्र के अग्रपूजा के अधिकारी,प्रकांड- पंडित, वेदांतसूर्य, ज्ञानभास्कर, विश्वामित्र गोत्रोत्पन्न, भट्टवंशदीपक, श्रीमत विश्वेश्वर भट्ट बिन दिवाकर भट्ट उपाख्य गागाभट्ट!मूलतः पैठण के रहवासी, महाराष्ट्रीय, देशस्थ ऋग्वेदी ब्राह्मणl इस घराने ने अपार ग्रन्थनिर्मिति कीl
यादवराज्य नष्ट हुआ, परतंत्रता आयीl महत्प्रयास से ब्राह्मण अपनी वेदविद्या, संस्कृताध्ययन व व्रत- संकल्प की रक्षा कर रहे थेl ऐसे समय में गागाभट्ट के दादाजी के दादाजी रामेश्वर भट्ट ज्ञानार्जन के लिए प्रवास करते थेl कुछ समय वे विजयनगर के कृष्णदेवराय के दरबार में भी थेl भविष्य में काशी आये व तब से काशी के निवासी बनेl
काशी-विश्वेश्वर का मंदिर सुल्तानों ने ध्वस्त कियाl रामेश्वर भट्ट के पुत्र नारायण भट्ट ने श्रीविश्वेश्वर की पुनःस्थापना की, उसे अभी-अभी औरंगजेब ने ध्वस्त किया थाl
भट्ट परिवार में अनेक शाखाएँ थीl प्रत्येक व्यक्ति विद्वान् थाl गागाभट्ट के पिताजी दिवाकर भट्ट भी महापंडित थे व महान ईश्वरभक्त थेl उन्होंने अपना देह बिन्दुमाधव के चरणों में मिलिंदायमान किया थाl
सभी भारतीय शास्त्रीपंडित, उत्तर प्रान्त के सभी राजे भट्टकुल को सम्मान देते थेl गागाभट्ट के ग्रन्थलेखन के प्रमुख विषय मीमांसा व धर्मशास्त्र थेl वे उत्तम संस्कृत कवि भी थेl मीमांसाकुसुमांजली, भट्टचिंतामणी,राकागम,दिनकरोद्- द्योत, नीरूढ पशुबंधप्रयोग, पिंडीपितृ यज्ञप्रयोग, सुज्ञानदुर्गोदय, समयनय ऐसे अनेक ग्रंथों की रचना गागाभट्ट ने की थीl
गागाभट्ट शिवाजी महाराज से मिलने काशी से रवाना हुए व शीघ्र ही नाशिक पहुँचे-यह समय था सन 1673 का दिसंबर माहl यह खबर महाराज के पास पहुँचीl इतना बडा व्यक्ति इतनी दूर से मिलने आ रहा है यह सुनकर उन्हें ससम्मान रायगढ लाने के लिए महाराज ने अपने पुरोहित-लिपिक सहित बडा दल नाशिक भेजाl
गागाभट्ट जब इन सबके साथ रायगढ के पास पहुँचे तब महाराज स्वयं अपने मंत्रियों सहित उनके स्वागत के लिए गयेl महाराज की यह विनम्रता देखकर गागाभट्ट का ह्रदय पुलकित हो उठाl प्रगाढ विद्वत्ता व प्रचंड शौर्य के दो प्रतीक प्रेमादर से एक-दूसरे से मिलेl रायगढ पर आते ही महाराज ने अपनी भारतीय संस्कृति के अनुसार गागाभट्ट की पूजा की व गढ पर ही उनके निवास की व्यवस्था कीl
जो सुना था, उसका प्रत्यक्ष दर्शन भी वैसा ही थाl यह व्यक्तित्व कुछ अलौकिक है गागाभट्ट को यह साक्षात्कार हुआl महाराज का राजोद्योग, लोकसंग्रह, साहित्यसंग्रह, कारोबार की कार्यपद्धति व इसके साथ न्यायपूर्ण, निःस्पृह, धर्मपरायण, सावध, उपभोगनिवृत्त, निर्व्यसनी, निगर्वी, शांत, गंभीर व्यवहार से गागाभट्ट का मन गद्गद हुआl महाराज की सर्वस्पर्शी बुद्धि, नौसेना, गड-दुर्ग, लश्कर, अश्वदल, अट्ठारह कारखाने, समृद्ध खजाना, सुखी व संतुष्ट प्रजा इन पहलुओं के दर्शन से गागाभट्ट के मन में महाराज के प्रति आदर द्विगुणित हुआl सबसे महत्वपूर्ण बात थी, इस बहुत बडे कार्य का उद्देश्य महान थाl स्वराज्य संस्थापना, धर्म संस्थापना, धर्मरक्षण, संतरक्षण, तीर्थक्षेत्र व मातृभूमि की यवनों से मुक्तता व प्रजा का संतान जैसा पालन-पोषण, यह उद्देश्य थाl गागाभट्ट के मन में आया, जो कार्य श्रीराम ने, श्रीकृष्ण ने किया वही कार्य महाराज कर रहे है, उनका चरित्र अलौकिक है, वे पुण्यपुरुष हैl यह सब सोचते-सोचते गागाभट्ट के अंतर्मन से एक विचार प्रकट हुआl ऐसे राजपुरुष को सिंहासन नहीं है, इसका अभी राज्याभिषेक नहीं हुआ हैl मुसलमान बादशाह तख्त पर बैठ सकता है, छत्र धारण कर सकता है फिर चार सल्तनतों से अपनी मातृभूमि को मुक्त करनेवाले इस पुण्यपुरुष को सिंहासन क्यों नहीं? विगत कई शतकों में ऐसे पराक्रमी पुरुष का जन्म नहीं हुआl उसने ध्वस्त देवताभूमि के संस्कृति को फिर बसाया, नवजीवन दिया, देव प्रतिष्ठापना की, नंदादीप प्रज्वलित किये, अन्याय को खत्म किया, गो- ब्राह्मणों की, धर्म की रक्षा की, सबको स्वतंत्रता दिलायीl उसने स्वराज्य अर्थात धर्मराज्य, रामराज्य स्थापित कियाl फिर उसे सिंहासन व छत्र क्यों नहीं? छत्र व सिंहासन के बिना राज्य को पूर्णत्व प्राप्त नहीं होगाl राज्याभिषेक के बिना उसके युग- प्रवर्तक कार्य का महत्व लोगों को समझ में नहीं आएगाl मराठा राजा सिंहासनाधीश्वर होना यह आवश्यक हैl राज्याभिषेक होगा तभी विश्व मान्यता प्रदान करेगाl सार्वभौमत्व का साक्षात्कार प्रजा को होना आवश्यक हैl गागाभट्ट ने विचार किया कि महाराज को बताने का समय अब आ गया है कि राज्या- भिषेक संस्कार के बिना मान्यता नहीं व कार्य की पूर्णता भी नहींl यह संस्कार करवाना तुम्हारा कर्तव्य हैl
सन्दर्भ -- राजा शिवछत्रपति
लेखक -- महाराष्ट्र भूषण व पद्म विभूषण बाबासाहेब पुरंदरे
संकलन -- स्वयंसेवक एवम टीम
: हिन्दवी स्वराज्य स्थापना का 350 वा वर्ष श्रृंखला 142 = महाराज का राज्याभिषेक भाग एक
स्वयं गागाभट्ट जैसे वेदोनारायण ने शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक का महत्व व आवश्यकता का प्रतिपादन कियाl राज्याभिषेक होना ही चाहिए यह आग्रहपूर्वक बतायाl 'सिंहासन पर बैठिये!' यह गागाभट्ट के रूप में धर्म की ही आज्ञा थीl महाराज क्षत्रियकुलोत्पन्न थे, संस्कार लुप्त हुए थे, सिंहासन लुप्त हुआ थाl इनकी फिर से संस्थापना शिवाजी जैसे प्रतापी पुण्यश्लोक राजा के हाथों होना यह मराठों का, मराठों की मिट्टी का, महाराष्ट्र प्रान्त का अहोभाग्य था!राज्याभिषेक की ह्रदयंगम कल्पना से रायगढ पर नवचैतन्य निर्माण हुआl खबर चारों ओर फैली, शूर सैनिक आनंदमुग्ध हुएl जिजाबाईसाहेब-माँसाहेब को लगा मानों मेरे व्रत का उद्यापन होगाl
राज्याभिषेक होना तय हुआ व सर्वप्रथम विचार हुआ राजधानी कौनसी? अर्थात राजधानी के लिए रायगढ तय हुआl कारण? क्योंकि गढ मजबूत था, चारों दिशाओं में पत्थर के सीधे कडे थे, ऊँचाई भरपूर थीl पूर्व में ही बारह महल, अट्ठारह कारखानों से गढ सुसज्जित थाl अब राज्याभिषेक के लिए राजसभा, श्री जगदीश्वर मंदिर निर्माण के लिए महाराज ने भवन निर्माण विभाग के प्रमुख हिराजी इंदुलकर को याद कियाl इंदुलकरजी ने गढ की सजावट प्रारम्भ कीl राजसभा के द्वार पर नगाडखाना बनाl इस प्रवेशद्वार की ऊँचाई इतनी थी कि हाथी की पीठ पर झंडा बंधा हुआ हो तो भी हाथी आसानी से अंदर प्रवेश कर पाएगाl
रायगढ पर एक पंक्ति में दुकाने थी जिससे बाजार सज गया थाl इन दुकानों की ऊँचाई एक पुरुष जितनी थी, इस कारण दुकानें अधिक शोभायमान प्रतीत हो रही थीl अधिक ऊँचाई रखने के पीछे एक उद्देश्य था, अगर कोई व्यक्ति खरीददारी करने घोड़े पर बैठकर अथवा पालकी में बैठकर आया तो उसे नीचे उतरने की आवश्यकता नहीं होl दोनों तरफ दुकाने व उसके मध्य लम्बा-चौडा राजरस्ता थाl राजप्रासाद, रानियों के व अष्टप्रधान मंडल के महल, राजसभा, नगाडखाना, महाद्वार, राजसेवकों के छोटे-बडे मकान, कोठियाँ-हवेलीयाँ थीlइसके अतिरिक्त विशेष समारोह के लिए आनेवाले लोगों की व्यवस्था के लिए 20,000 लोग बैठ सकें ऐसे शामियाने, मण्डपों से गढ सुसज्जित हुआ थाl
हिराजी ने जगदीश्वर मंदिर की सीढी पर लिखवाया था, "सेवा के लिए सतत तत्पर, हिराजी इंदुलकर"! इसके साथ राज्याभिषेक का उल्लेख तिथि सहित भी दीवार पर लिखवाया गयाl-- l l श्रीगणपतये नमः l l
प्रासादो जगदीश्वरस्य जगतामानन्दो नुज्ञया, श्रीमच्छत्रपते: शिवस्य नृपते: सिंहासने तिष्ठतः, शाके षण्णव बाणभूमिगणनादानन्द संवत्सरे, ज्योति राजमुहूर्त कीर्तिसहिते शुक्लेष सार्पे तिथ्औ l l
नगाडखाना व महाद्वार की दीवारों पर अपने पैरों तले सिंह हाथी को रौन्द रहा है ऐसे शिल्प उकेरे गये थेl
गढ पर टकमक टोक (फाँसी देने का स्थान), पूर्व में भवानी व पश्चिम में हिरकणी बुर्ज, उसके पास श्रीगोंदे टोक था व कैलाश पर्वत जैसा रायगढ का शिखर थाl पानी की व्यवस्था के लिए गढ पर गंगासागर व कुशावर्त तालाब थेl हाथियों के स्नान के लिए अलग तालाब बनवाया गया थाl इसके अतिरिक्त गढ पर अन्यान्य स्थानों पर पानी की टंकीयाँ व छोटे तालाबों का निर्माण करवाया गया थाl
गढ पर राज्याभिषेक की तैयारी प्रारम्भ हुईl दर्भ से सिंहासन तक, सुपारी से हाथी तक व खडी हल्दी से हवनकुंड तक सामानों की सूची बनवायी गयीl गागाभट्ट की सहायता करने के लिए महाराज के राजोपाध्याय बालंभट आर्वीकर सतत उनके साथ में थेl महाराज स्वयं मात्र स्वराज्य विस्तार व संरक्षण की योजना बनाने में व्यस्त थेl
गागाभट्ट, बालंभट व ऐसा कहे सम्पूर्ण रायगढ राज्याभिषेक की सिद्धता के लिए कार्यरत थाl सुवर्ण सिंहासन बन रहा था, यह कार्य रामाजीप्रभु चित्रे देख रहे थेl सिंहासन 32 मण अर्थात 144 किलो सोने का बन रहा थाl राज्यचिन्ह बनवाये गयेl
सबसे महत्वपूर्ण बात थी राज्याभिषेक का सुमुहूर्त निश्चित करनाl गागाभट्ट ने अभ्यासपूर्ण चिकित्सा कर मुहूर्त तय किया- श्रीनृपशालीवाहन शके 1596, आनंदनाम संवत्सर, जेष्ठ शुद्ध 13, उष:काल अर्थात दि.06 जून 1674 निरंतर
सन्दर्भ -- राजा शिवछत्रपति
लेखक -- महाराष्ट्र भूषण व पद्म विभूषण बाबासाहेब पुरंदरे
संकलन -- स्वयंसेवक एवम टीम:
हिन्दवी स्वराज्य स्थापना का 350 वा वर्ष श्रृंखला 143 = महाराज का राज्याभिषेक भाग दो
मुहूर्त निश्चित होते ही सभी देवी -देवताओं को समारोह के लिए पीले चावल (अक्षत) भेजे गयेl उन्हें सपरिवार आने का निमंत्रण भेजा गयाl श्रीमंगलमूर्ति मोरेश्वर,रिद्धि- सिद्धि,खंडेराय,घृष्णेश्वर, पंढरपुर का विट्ठल,श्रीमन्माया,श्रीमहाकाली, श्री महासरस्वती, श्रीमहालक्ष्मी, श्री गिरिजापते काशीविश्वेश्वर!महाराष्ट्र के मस्तक पर कृपाछत्र रहे, आशीर्वाद देने के लिए आनाl एक और निमंत्रण भेजा गया जगतवंदनीय संतों को, पूर्वजों को, धारातीर्थी अपना बलिदान स्वराज्य के लिए देनेवाले पुण्यपुरुषों को, चित्तोड की साध्वीयों को, सतियों, योगिनियों को!राजे पर आशीषभरा हाथ रखने के लिए आना! स्वकीय, आप्तस्नेही, शास्त्री, वैदिक पंडित, सत्पुरुष सभी को निमंत्रण रवाना हुएl गायक, वादक, नर्तक, भाट,चारण, शाहिर सभी को बुलावा भेजा गयाl
कार्यानुसार विभागों को जिम्मेदारी सौपी गयीl सबकुछ व्यवस्थित व शाही ठाटबाट से संपन्न हो इसलिए विशेष सावधानी ली जा रही थीl
राज्याभिषेक के लिए सप्तगंगा जल, सभी समुद्रों, नदियों व विशेष तीर्थक्षेत्रों से जल लाने की व्यवस्था की गयीl आनेवाले आमंत्रितों की व्यवस्था उत्तम हो इसलिए हाथी, घोड़े, पालकियाँ मँगवायी गयीl भरपूर वस्त्र, द्रव्य-गहने, तुलादान हेतु सामग्री सब मँगवाया गयाl शुभलक्षणी गाये भी गढ पर बुलवायी गयीl
स्वयं के मस्तक पर छत्र धारण करने के पहले महाराज श्रीमंमहन्मगला श्री भवानीदेवी के मस्तक पर छत्र चढ़ाने दि.19 मई 1674 को स्वारशिबन्दी सहित प्रतापगढ गयेl महाराज ने देवी के लिए रत्नजड़ित स्वर्णछत्र बनवाया थाl भवानी देवी के तेजस्वी प्रेरणा से ही स्वराज्य का निर्माण हुआ थाl देवी का जयकारा लगाते-लगाते ही महाराज ने प्रत्येक मुहिम में विजयश्री प्राप्त की थीl महाराष्ट्र की उस कुलस्वामिनी की षोडशोपचार पूजा संपन्न कराकर वह स्वर्णछत्र महाराज ने देवी को अर्पण किया व कहा, "उदयोस्तु जगदम्बे!उदयोस्तु!भगवती श्रीमन्महात्रिपुरसुंदरी!अनेककोटी ब्रह्माण्डमंडल-जगदुत्पत्तीस्थिति- नीलयलीला विलासिनीl अखिलवृन्दाकरस्तुति सेवापरायणान दिग्विदिक स्वैरक्रीड़ा मदीय ह्रत्कमलास्थिता श्री श्री तुळजा भवानी, उदयोस्तु!अम्बे उदयोस्तु!" हाथ जोड़कर प्रार्थना की, "माते! स्वयं आकर कार्यसिद्धि करना, अष्टभुजाओं से सम्पूर्ण कराना!" अर्थात यह प्रार्थना भी स्वराज्य हित के लिए ही थीl
महाराज का राज्याभिषेक, अर्थात विशेष कार्य-प्रयोजनlअतः गागाभट्ट ने सम्पूर्ण विधी का स्वरुप कैसा हो? कौनसे धार्मिक संस्कार करने हैं? समारोह में और क्या समाहित होगा? आदि बिंदुओं का गहराई से अध्ययन कियाl इन सबको मार्गदर्शन प्राप्त हो इसलिए एक छोटा ग्रन्थ लिखा जिसका नाम था 'राज्याभिषेकप्रयोग'
रायगढ का महाद्वार बंदनवार से सुशोभित हुआl सिंग, नगाडे, चौघडों की ध्वनि से रायगढ का आसमंत भर गयाl स्वस्तिक बनाये गये, श्रीगणराय की प्रतिष्ठापना हुईl गागाभट्ट ने गणेश का आह्वान कियाl विधी प्रारम्भ हुएl सर्वप्रथम उपनयन संस्कार!महाराज क्षत्रियकुलोत्पन्न थे परन्तु संस्कार लुप्त होने के कारण महाराज का उपनयन संस्कार नहीं हुआ थाl उपनयन के बिना ब्राह्मण को ब्राह्मणत्व व क्षत्रिय को क्षत्रियत्व प्राप्त नहीं होता हैl
29 मई 1674, जेष्ठ शुद्ध चतुर्थी को महाराज का उपनयन संस्कार संपन्न हुआl महाराज ने यग्योपवित धारण कर गायत्री मंत्र की दीक्षा ग्रहण कीl पौरोहित्य अर्थात गागाभट्ट व बालंभट्ट ने पूर्ण कियाl
महाराज ने गायत्री मंत्र की दीक्षा ग्रहण की कारण मंत्र की तेजस्वीता ही महान है, जिस तेज से महाराज ने अलौकिक कार्य किया था व भविष्य में भी करना था, स्वराज्य निर्माण हुआ व संरक्षण करना थाl इस मंत्र की महती के सम्बन्ध में कहा जाता है कि महर्षि विश्वामित्र ने इस मंत्र के पुरश्च्चरण से प्रतिसृष्टी निर्माण करने का सामर्थ्य व तेज प्राप्त किया थाl 'ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमही l धियो यो नः प्रचोदयात l ' अर्थात सर्वलोकों में व्याप्त उस सृष्टीकर्ता प्रकाशमान परमात्मा के तेज का हम ध्यान करते हैंl वह तेज हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरणा प्रदान करेंl
उपनयन संस्कार के पश्चात विवाह होता हैl महाराज विवाहित थेl अब फिरसे विवाह तो पहले विवाहों का क्या? यह प्रश्न उपस्थित हुआl ऐसा किसीपर अन्याय हो, महाराज के लिए यह संभव ही नहीं थाl शास्त्रार्थ कर मार्ग निकाला गया, जिन रानियों के साथ विवाह हुए थे उनसे फिरसे दि.30 मई 1674 को विवाह संपन्न हुएl
वातावरण में उमंग व उल्लास था मंगलवाद्यों की ध्वनि से वातावरण और प्रफुल्लित हो उठा थाl भिन्न- भिन्न प्रांतों से विद्वतजन, मुत्सद्दी, कलासाधक, योद्धा, राजकीय अधिकारी, कवि, वकील आपस में मिल रहे थेl वादविवाद व शास्त्रचर्चा के कारण शास्त्रीपंडितों को लाभ मिल रहा थाl मेलजोल से वातावरण निर्मल बना थाl
प्रतिदिन एक-एक विधी संपन्न हो रहा थाl केवल दुग्धपान व फलाहार लेकर महाराज धार्मिक विधी करा रहे थेl ऐसे पुण्यकार्य में महाराज का व्रतस्थ रहना स्वराज्य के लिए और लाभप्रद होगा यह सुनिश्चित थाl सर्वप्रथम ऋत्विजवर्णन-पुण्याहवाचन हुआl फिर विनायकशांति, नक्षत्रशांति, गृहशांति, ऐंद्रीयशांति, वौरंदरीशांति संपन्न हुईl
भारतीय संस्कृति में सोलह महादानों का उल्लेख हैl उसमें एक तुलादान भी होता हैl दि.04 जून 1674 को महाराज की सुवर्णतुला संपन्न हुईl ब्राह्मणों के मंत्रोच्चार के साथ तुलादान हुआl सोने के अतिरिक्त चांदी, ताम्बा, कपूर, शकर, मख्खन, फल, मसालों से भी तुला हुई व सर्व सामग्री दान की गयीl निरंतर
सन्दर्भ -- राजा शिवछत्रपति
लेखक -- महाराष्ट्र भूषण व पद्म विभूषण बाबासाहेब पुरंदरे
संकलन -- स्वयंसेवक एवम टीम
: हिन्दवी स्वराज्य स्थापना का 350 वा वर्ष श्रृंखला ,144 = महाराज का राज्याभिषेक भाग तीन
वह मंगल दिन आया, जेष्ठ शुक्ल त्रयोदशी , आनंद संवत्सर में आनंदवनभूवन में चारों ओर आनंद छाया हुआ थाl इस आनंद की तुलना ही नहीं हो सकती, उसके सामने सब फीका थाl अमृत, नंदनवन,कल्पवृक्ष की छाया, इंद्रसभा का वैभव सब फीका थाl उसका कारण था यह आनंद सार्वभौमत्व का आनंद था!स्वतंत्रता का आनंद था!हमारा राजा, हमारी सेना, हमारा ध्वज, हमारा अष्टप्रधान मंडल, हमारी भूमि, हमारा पानी व हमारा आसमान सब सार्वभौम सिंहासन पर राज्याभिषिक्त होनेवाले थेl हम अब गुलाम नहीं है, स्वतंत्र हुएl राजा के साथ-साथ महाराष्ट्र का समुद्र, सह्याद्री, प्रजा, गाय-बैल, पक्षी, वृक्ष- बेलें सबके मस्तक पर छत्र विराजित होगाl
सुबह हुई, दीपज्योतियाँ प्रज्वलित हुई, चौघड़ा बजने लगाl सूर्योदय से तीन प्रहर पूर्व का समय, अर्थात अंधेरा था परन्तु सह्याद्री के ऊँचे शिखरों में से एक शिखर पर हजारों दीप जल उठें, वाद्यों के ध्वनि पहाड़- खाइयों में गूंज रहे थेl राजमंदिर में गागाभट्ट एवम बालंभट्ट व अन्य विद्वानों के मुख से वेदमन्त्रों का घोष प्रारम्भ हुआl महाराज ने कुलदेवता का पूजन कियाl कुलगुरु के नाते बालंभट्ट की पाद्यपूजा कीl
समारोह में सब आप्तस्वकीय व स्वराज्य निर्माण में कंधे से कंधा मिलाकर साथ-सहयोग देनेवाले साथी सभी थेl परन्तु इस क्षण का आनंद लेने के लिए उपस्थित नहीं थे राजे के तान्हाजी मालुसरे, बाजीप्रभु देशपांडे,शिवा काशीद, बांदल सूर्याजी काकडे, बाजी पासलकर, मुरारबाजी देशपांडे, प्रतापराव गुजर व इनके जैसे अनेकl महाराजसाहेब शहाजीराजे, दादाजी कोंडदेव, सोनोपंत ऐसे आशीर्वाद देनेवाले हाथ नहीं थेl इन सबकी स्मृति से महाराज का मन भारी हुआ, अनेकानेक क्षणों की याद से मन भर आयाl स्वराज्य का निर्माण हुआ, सिंहासन प्रकट हुए परन्तु हजारों युवकों ने अपने प्राण गँवाएँ, माताएँ निपुत्रिक हुई व महिलाएँ विधवा हुईl उन सबके द्वारा किये गये त्याग से यह महान क्षण आया थाl राजा सह्रदय व विवेकी था, सिंहासन की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए प्रत्येक सीढी के नीचे अपने निष्ठावान साथियों की आहुति व माता-बहनों का सुख का त्याग है, यह कृतग्यता की भावना महाराज के मन में थीl अब शिवाजी 'राजा' तो था ही, परन्तु वह किसीका भाई था, किसीका पुत्र, किसीका मित्र था!
गागाभट्ट के आज्ञानुसार महाराज, सोयराबाई व संभाजीराजे स्वर्ण से निर्मिति चौकी पर बैठेl अभिषेक प्रयोग प्रारम्भ हुआl गागाभट्ट सहित सभी महापंडितों के मंत्रघोष के साथ तीनों का पंचामृत व शुद्धोदक स्नान हुआl तत्पश्चात शुरू हुआ अभिषेक- 'गंगेच यमुने चैव, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदे, सिन्धु, कावेरी --- फिर समुद्रोदक स्नान,उष्णोदक स्नान, अमृताभिषेक अर्थात विधी का पूर्वार्ध संपन्न हुआl अब उत्तरार्ध अर्थात सिंहासनारोहण!सुहागनों ने आरती उतारी, कांसे के पात्र में घी रखा था उसमें महाराज ने मुखावलोकन कियाl
राजसभा गद्दे, लोड, पर्दे, कनाती, झालर, झूमर, पुष्पमलाओं से सजायी गयी थीl प्रवेशद्वार के बाहर दो अलंकृत गजराज खडे थेl राजसभा के प्रवेशद्वार के ठीक सामने सुन्दर चबूतरा बनाया गया था, उसके ऊपर एक और चबूतरा था, उसके ऊपर अष्टस्तम्भी मेघडंबरी जैसा मंडप था व उस मंडप में सिंहासन रखा थाl सिंहासन के बायी ओर राजकुल के महिलाओं की बैठने की व्यवस्था थीl
अमृताभिषेक के पश्चात् महाराज ने विशेष वस्त्रालंकार धारण कियेl धनुष -तीर व ढाल-तलवार की पूजा कर कुलदेवता को नमन कियाl ब्रह्मवृदों के आशीर्वाद लेकर महाराज माँसाहेब के पास आयेl आज माँसाहेब का जीवन कृतार्थ हुआl अपनी आँखों से उन्होंने अपने शिवबा को मिट्टी के ढेर पर राज्य करते हुए देखा था, आज वह मिट्टी का ढेर रायगढ बनते हुए माँसाहेब ने देखाl अपनी गोद के सिंहासन पर अपने पुत्र को बिठाकर, धर्मसंस्थापना का उद्देश्य अपने मन में रखकर उसे रामायण-महाभारत सुनाया था,ताकि वह भी आगे चलकर धर्मराज्य स्थापित करें, आज वह पुत्र उस उद्देश्य पूर्ति के साथ स्वर्णसिंहासन पर बैठनेवाला थाl संतोष एवम तृप्ति का यह क्षण व तीनों के मस्तक माँसाहेब के सामने आशीर्वाद के लिए झुके थेl माँ का प्रत्येक शब्द, प्रत्येक श्वास व नजर में आशीर्वाद रहता ही हैl माँसाहेब ने आशीर्वाद दिया, आयुष्मान भव!रामराज्य करो!आशीष लेकर कोदंडधारी महाराज राजसभा की ओर गयेl निरंतर
सन्दर्भ -- राजा शिवछत्रपति
लेखक -- महाराष्ट्र भूषण व पद्म विभूषण बाबासाहेब पुरंदरे
संकलन -- स्वयंसेवक एवम टीम
प्रस्तुति.... अशोक जी पोरवाल क्षेत्र स प्र प्र:
हिन्दवी स्वराज्य स्थापना का 350 वा वर्ष श्रृंखला 146 = महाराज का राज्याभिषेक भाग चार
सिंहासन के आसपास सभी राजचिन्ह थेl स्वर्ण से निर्मिति भाले थेl एक भाले की नोक पर तराजू व दूसरे भाले की नोक पर सुवर्ण मत्स्य लटक रहे थेl
महाराज सिंहासन के सामने आये, दाया घुटना जमीन पर टीकाकर महाराज ने सिंहासन को नमन कियाl गागाभट्ट व अन्य पंडितों ने वेदमंत्र प्रारम्भ किये व सिंहासन को पदस्पर्श न करते हुए महाराज सिंहासनारुढ हुएl चौघडे, ताशे, नौबत-नगाडे बजने लगेl तोपे-बन्दुकों ने सलामी दी, वाद्य व शस्त्र सभी के मिश्र ध्वनि से दसों दिशाएँ भर गयीl सहस्त्रावधी सभाजनों ने सोने-चांदी के पुष्प, अक्षत, सुगंधी पुष्प, खील की अविरत वृष्टि की व हजारों कंठ से निनाद उठा,'शिवाजी महाराज की जय!शिवाजी महाराज की जय!'
महाराज के प्रति मन में आदर, प्रेम, स्नेह, कृतज्ञता व आशीर्वाद लिये 16 सुहागिनों व 16 कन्याओं ने कुंकुम- तिलक कर महाराज की आरती उतारी जैसे ये सभी सम्पूर्ण स्त्रीजाति की प्रतीक थीl उन सबको वस्त्रालंकार प्रदान कर महाराज ने उन सबको सम्मान प्रदान कियाl
इसके बाद मोतियों की झालर से सुसज्जित रत्नजडित राजछत्र गागाभट्ट ने स्वयं के हाथ से महाराज के ऊपर पकड़ा व उन्होंने घोषणा की,'महाराज शिवाजी राजे आज छत्रपति बने-राजा शिवछत्रपति'l राजसभा में आवाज गूंजने लगी,
"गोब्राह्मण प्रतिपालक,
क्षत्रियकुलावतंस,
सिंहासनाधीश्वर,
छत्रपति शिवाजी महाराज की जय"
उद्घोष के साथ भाट, कवि स्तुतिगान करने लगेl स्वराज्य के सभी किलों पर तोपे गरज उठीl वाद्यों के स्वर, जयकारे की गर्जना व तोपों की सलामी की आवाज से बीजापुर व दिल्ली तक खबर गयीl आनंदनाम संवत्सर में जेष्ठ शुक्ल त्रयोदशी, शालिवाहन शके 1596, शनिवार सुबह की बेला में, पाँच बजे महाराज शिवाजीराजे सिंहासनाधीश्वर हुएl
यह क्षण इसलिए अत्युच्च आनंद का था क्योंकि चार पातशाहियाँ महाराष्ट्र के सीने पर भाले गाडकर खडी थी परन्तु अपने अतुलनीय पराक्रम से उन्हें पराजित कर आज मराठा राजा छत्रपति बना थाl यह कोई सामान्य बात नहीं थीl सुल्तानों की मिरासदारी (बपौती) खत्म हुईl मानों ऐसा लग रहा था कि देवगिरी, वारंगले, द्वारसमुद्र, कर्णावती, विजयनगर व इंद्रप्रस्थ के भग्न सिंहासन एक होकर रायगढ पर एक सिंहासन के रूप में स्थापित हुएl
महाराज के मस्तक पर गागाभट्ट ने छत्र पकड़ा व सभी शास्त्री-पंडितों ने महाराज को शुभाशिर्वाद दियेl स्वराज्य के प्रधान पंडित मोरोपंत ने महाराज के मस्तक पर सुवर्णसिक्कों का वर्षाव कियाl राज्याभिषेक के उपलक्ष्य में मोरोपंत ने 1008 होन महाराज को उपहार स्वरुप दिये थेl इसके पश्चात् अन्य प्रधान, सरदार, सुबेदार, अन्यान्य अधिकारी, आमंत्रितों ने महाराज को उपहार दियेl
इस समारोह के लिए अंग्रेज वकील हेंरी ऑक्झिण्डेन भी उपस्थित थाl राज्याभिषेक के पश्चात् उसने महाराज को झुककर प्रणाम किया व एक अंगुठी, एक कुर्सी व कुछ राशि महाराज को उपहारस्वरुप भेंट कीl महाराज ने उसे वस्त्रालंकार दियेl महाराज ने समारोह में आए हुए प्रत्येक को वस्त्रालंकार देकर सम्मानित कियाl
यह सत्र समाप्त होने के बाद महाराज सम्पूर्ण लाव-लश्कर अर्थात हाथी, अश्वदल, थलदल, तोपे, नगाडखाना, ऊँट, मंगलवाद्यों के साथ हाथी पर सवार होकर देवदर्शन के लिए गयेl अलंकारों से सज्जित हाथी पर सरसेनापति महावत के रूप में बैठे थेl इस यात्रा में भगवा ध्वज भी था, आज उसका सम्मान आसमान तक पहुँचा थाl
महाराज जिस हाथी पर बैठे थे उसके आसपास विशिष्ट थलदल, घुडसवार, अष्टप्रधान मंडल चल रहा थाl स्वर्णदंड लेकर विशेष दरबारी आगे चल रहे थे व महाराज के नाम के जयघोष की गर्जना कर रहे थेl लोगों ने अपने घर व रास्तों पर सजावट की थीl सम्पूर्ण मार्ग पर महिलाएँ अत्यानन्द से महाराज पर पुष्प, अक्षत व खील का वर्षाव कर रही थीl
गढ पर सभी मंदिरों में जाकर देवदर्शन कर महाराज राजमंदिर गये, वहाँ स्त्रियों ने नजर उतारीl महल में जाकर कुलस्वामिनी का आशीर्वाद लेकर महाराज माँसाहेब के पास गये, महाराज ने उनके चरण छुएँ, राजस्त्रियों ने आरती उतारी व महाराज ने उनको वस्त्रालंकार प्रदान कियेl माँसाहेब के जीवन का यह सुवर्णक्षण थाl सुवर्णक्षण था पुत्र को सिंहासनारुढ होते देखा इसलिए व सुवर्णक्षण था स्वप्नपूर्ति के आनंद का!सुल्तानों के अत्याचारों से उनके पुत्र ने प्रजा को मुक्त कराया व सम्मानजनक जीवन प्रदान कियाl महाराजसाहेब व माँसाहेब ने प्रजा के लिए यह स्वप्न संजोया था, उसकी पूर्तता का यह क्षण थाl
दोपहर भोजन पश्चात् राजसेवक वापस गये व महाराज ने स्नेहभरे शब्दों से माँसाहेब को कहा, "आपके आशीर्वाद से मनोरथ सिद्ध हुआ"
सन्दर्भ -- राजा शिवछत्रपति
लेखक -- महाराष्ट्र भूषण व पद्म विभूषण बाबासाहेब पुरंदरे
संकलन -- सौ. शुभा मराठे, उज्जैन 9425917450
आलोक - 1 हिंदवी स्वराज्य स्थापना का 350वा वर्ष श्रृंखला को यही विराम दे रहे क्योंकि संघ शिक्षा वर्ग की व्यस्तता के कारण एक माह मोबाइल उपवास रहेगा।
2 हिंदवी स्वराज्य की स्थापना के 100 बाद का इतिहास भी संभाजी राजे, मराठा एवम पेशवाओं का पराक्रम एवम विजय का रहा है जिनको इतिहास में रुचि उन्होंने जरूर अध्ययन करना चाहिए ।
3 शुभा मराठे दीदी हिंदवी स्वराज्य पर पुस्तक प्रकाशित कराने का विचार कर रही है ताकि आने वाली पीढ़ी हिंदुओं के विजयशाली इतिहास को जान सके। हम स्वयं के लिए, अपने परिचितों के लिए, प्रत्येक विद्यालय, महाविद्यालय के पुस्तकाल हेतु कितनी पुस्तके चाहिए शुभा मराठे दीदी को बता सकते हैं। उनका मोबाईल नम्बर 9425917450 हैं।
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